Sunday, February 10, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २३





श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २३

प्राचेतसस्तु भगवन्नपरो हि दक्ष-
स्त्वत्सेवनं व्यधित सर्गविवृद्धिकाम: ।
आविर्बभूविथ तदा लसदष्टबाहु-
स्तस्मै वरं ददिथ तां च वधूमक्षणीम॥१॥

:: ब्रह्म पुत्र दक्ष से भिन्न, प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने सर्ग की वृद्धि की कामना से आपकी सेवा की और पूजन किया। तब अष्ट भुजाओं से सुशोभित आप उसके समक्ष प्रकट हुए। आपने उसको वरदान दिया और अक्षणी नाम की पत्नी भी दी।

तस्यात्मजास्त्वयुतमीश पुनस्सहस्रं
श्रीनारदस्य वचसा तव मार्गमापु: ।
नैकत्रवासमृषये स मुमोच शापं
भक्तोत्तमस्त्वृषिरनुग्रहमेव मेने ॥२॥

:: दक्ष के दस हजार और एक हजार, अर्थात ग्यारह हजार पुत्र हुए। श्री नारद के उपदेश से वे सब आपके मार्ग में प्रवृत्त हो गये। इस पर दक्ष ने नारद जी को एक स्थान पर टिक कर न रहने का शाप दिया। भक्त श्रेष्ठ नारद ने इसे शाप न मान कर अनुग्रह ही माना।

षष्ट्या ततो दुहितृभि: सृजत: कुलौघान्
दौहित्रसूनुरथ तस्य स विश्वरूप: । 
त्वत्स्तोत्रवर्मितमजापयदिन्द्रमाजौ
देव त्वदीयमहिमा खलु सर्वजैत्र: ॥३॥

:: तब दक्ष ने अपनी साठ कन्याओं के द्वारा विभिन्न चराचर कुल समूहों को उत्पन्न किया। उसके दौहित्र के पुत्र विश्वरूप ने इन्द्र से नारायण कवच का जप करवाया और युद्ध में विजय प्राप्त करवाई। हे भगवन! निश्चय ही आपकी महिमा सर्व जयी है।

प्राक्शूरसेनविषये किल चित्रकेतु:
पुत्राग्रही नृपतिरङ्गिरस: प्रभावात् ।
लब्ध्वैकपुत्रमथ तत्र हते सपत्नी-
सङ्घैरमुह्यदवशस्तव माययासौ ॥४॥

:: पूर्वकाल में शूरसेन के राज्य में चित्रकेतु नाम के राजा हुए। पुत्र के इच्छुक राजाने ऋषि अङ्गिरस के प्रभाव से पुत्र प्राप्त किया। लेकिन रानी की सौतों ने उसे मार दिया। दु:ख से कातर राजा आपकी माया से सम्मोहित हो कर अचेतन हो गये।

तं नारदस्तु सममङ्गिरसा दयालु:
सम्प्राप्य तावदुपदर्श्य सुतस्य जीवम् ।
कस्यास्मि पुत्र इति तस्य गिरा विमोहं
त्यक्त्वा त्वदर्चनविधौ नृपतिं न्ययुङ्क्त ॥५॥

:: तब निश्चय ही दयालु नारद अङ्गिरस के संग उस राजा चित्रकेतु के पास गये। वहां उसे उसके पुत्र का जीव दिखाया। पुत्र ने पूछा कि वह किसका पुत्र है? उसकी वाणी से राजा का मोह दूर हो गया और वह आपकी अर्चना के विधान में प्रवृत्त हो गये।

स्तोत्रं च मन्त्रमपि नारदतोऽथ लब्ध्वा
तोषाय शेषवपुषो ननु ते तपस्यन् ।
विद्याधराधिपतितां स हि सप्तरात्रे लब्ध्वाप्यकुण्ठमतिरन्वभजद्भवन्तम् ॥६॥

:: राजा चित्रकेतु ने नारद ही से स्तोत्र और मन्त्र पाया और आपके शेष स्वरूप की प्रसन्नता के लिये आपकी तपस्या करने लगे। सात रात्रियों में ही उन्होने विद्याधर के अधिपत्य को प्राप्त कर लिया। इस प्रकार और भी अकुण्ठित और निर्मल बुद्धि वाले हो कर वे आपका भजन करने लगे।

तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा
रूपेण बद्धनुतिसिद्धगणावृतेन ।
प्रादुर्भवन्नचिरतो नुतिभि: प्रसन्नो
दत्वाऽऽत्मतत्त्वमनुगृह्य तिरोदधाथ ॥७॥

::तदन्तर चित्रकेतु की स्तुतियों से प्रसन्न हो कर आप कमल नाल के समान श्वेत सहस्र फणो वाले स्वरूप से उनके लिये प्रकट हो गये। उस समय आप सतत स्तुति करते हुए सिद्धगणों से घिरे हुए थे। आपने राजापर अनुग्रह कर के उन्हें तुरन्त आत्म तत्व का ज्ञान दिया और अन्तर्धान हो गये।

त्वद्भक्तमौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं
वर्षाणि हर्षुलमना भुवनेषु कामम् ।
सङ्गापयन् गुणगणं तव सुन्दरीभि:
सङ्गातिरेकरहितो ललितं चचार ॥८॥

:: आपके भक्त शिरोमणि राजा चित्रकेतु, प्रसन्न चित्त हो कर, लाख लाख वर्षों तक समस्त भुवनों में, सुन्दरी विद्याधरियों के द्वारा आपके गुण गणों का गान कराते रहे। वे स्वयं अत्यन्त अनासक्ति के सङ्ग स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते रहे।

अत्यन्तसङ्गविलयाय भवत्प्रणुन्नो
नूनं स रूप्यगिरिमाप्य महत्समाजे ।
निश्शङ्कमङ्ककृतवल्लभमङ्गजारिं
तं शङ्करं परिहसन्नुमयाभिशेपे ॥९॥

::अपनी आसक्तियों को पूर्ण रूप से त्यागने के लिये, आप से प्रेरित हो कर, वे रूप्य गिरि - कैलाश पर पहुंचे। वहां साधु समाज में, नि्श्शङ्क भाव से अपनी पत्नि पार्वती को अङ्क में बैठाये हुए शंकर को देख कर, उनका परिहास किया। इस पर उमा ने चित्रकेतु को शापित किया।

निस्सम्भ्रमस्त्वयमयाचितशापमोक्षो
वृत्रासुरत्वमुपगम्य सुरेन्द्रयोधी ।
भक्त्यात्मतत्त्वकथनै: समरे विचित्रं
शत्रोरपि भ्रममपास्य गत: पदं ते ॥१०॥

::चित्रकेतु ने अविचिलित रहते हुए शाप से मुक्ति की भी याचना नहीं की, और वृत्रासुरत्व को प्राप्त कर के इन्द्र से युद्ध किया। युद्ध में ही अत्यन्त भक्ति पूर्वक उन्होंने आत्मतत्व का निरूपण किया। और आश्चर्य है कि उससे शत्रु का भी मोह भ्रम दूर हो गया। फिर वे आप के निवास स्थान को चले गये।

त्वत्सेवनेन दितिरिन्द्रवधोद्यताऽपि
तान्प्रत्युतेन्द्रसुहृदो मरुतोऽभिलेभे ।
दुष्टाशयेऽपि शुभदैव भवन्निषेवा
तत्तादृशस्त्वमव मां पवनालयेश ॥११॥

:: दिति इन्द्र का वध करने की इच्छुक थी। किन्तु आपकी अर्चना करने से उसे इन्द्र के मित्र मरुत्गणो की प्राप्ति हुई। आपकी अर्चना के प्रभाव से दूषित संकल्पों वालों के भी संकल्प शुभ दायी हो जाते हैं। वही इस प्रकार के आप मेरी रक्षा करें, हे पवनालय के ईश्वर!

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

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