Sunday, February 10, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३४






*श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३४ *

गीर्वाणैरर्थ्यमानो दशमुखनिधनं कोसलेष्वृश्यशृङ्गे
पुत्रीयामिष्टिमिष्ट्वा ददुषि दशरथक्ष्माभृते पायसाग्र्यम् ।
तद्भुक्त्या तत्पुरन्ध्रीष्वपि तिसृषु समं जातगर्भासु जातो
रामस्त्वं लक्ष्मणेन स्वयमथ भरतेनापि शत्रुघ्ननाम्ना ॥१॥


:: देवताओं ने रावण के वध के लिये आपकी प्रार्थना की। कोशल देश में ऋश्यशृङ्ग ऋषि
के द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान करवा लेने पर आपने राजा दशरथ को
दिव्य पायस दिया। राजा दशरथ की तीनों पत्नियां उस पायस को खा कर एक साथ
गर्भवती हो गईं। तब आपने राम रूप में जन्म लिया। लक्ष्मण भी आप हे थे और भरत
और शत्रुघ्न नाम्ना भी आप ही थे।

कोदण्डी कौशिकस्य क्रतुवरमवितुं लक्ष्मणेनानुयातो
यातोऽभूस्तातवाचा मुनिकथितमनुद्वन्द्वशान्ताध्वखेद: ।
नृणां त्राणाय बाणैर्मुनिवचनबलात्ताटकां पाटयित्वा
लब्ध्वास्मादस्त्रजालं मुनिवनमगमो देव सिद्धाश्रमाख्यम् ॥२॥


:: पिता की आज्ञा से कोदण्ड नामक धनुष को धारण किये हुए आप, लक्ष्मण के साथ कौशिक
मुनि के श्रेष्ठ यज्ञ की रखवाली के लिये गये। मार्ग की क्लान्ति को दूर करने
के लिये मुनि ने आपको दो मन्त्रों का उपदेश दिया। लोगों की रक्षा के लिये मुनि
की आज्ञा से आपने ताडका को चीर डाला। हे देव! मुनि से बहुत प्रकार के अस्त्र
प्राप्त कर के आप उन के साथ वन में सिद्धाश्रम गये।

मारीचं द्रावयित्वा मखशिरसि शरैरन्यरक्षांसि निघ्नन्
कल्यां कुर्वन्नहल्यां पथि पदरजसा प्राप्य वैदेहगेहम् ।
भिन्दानश्चान्द्रचूडं धनुरवनिसुतामिन्दिरामेव लब्ध्वा
राज्यं प्रातिष्ठथास्त्वं त्रिभिरपि च समं भ्रातृवीरैस्सदारै: ॥३॥


:: यज्ञ के प्रारम्भ में आपने मारीच को खदेड कर अन्य राक्षसों को बाणों से मार
दिया। मार्ग में अपनी पगधूलि से अहिल्या को पवित्र करके श्राप मुक्त किया।
जनकपुरी पहुंच कर शंकर जी के धनुष को तोड दिया और लक्ष्मी स्वरूपा भूमि पुत्री
सीता का पत्नी रूप में वरण किया। तत्पश्चात आपने अपने तीनों वीर भ्राताओं और
उनकी पत्नियों के साथ अपने राज्य अयोध्या को प्रस्थान किया।

आरुन्धाने रुषान्धे भृगुकुल तिलके संक्रमय्य स्वतेजो
याते यातोऽस्ययोध्यां सुखमिह निवसन् कान्तया कान्तमूर्ते ।
शत्रुघ्नेनैकदाथो गतवति भरते मातुलस्याधिवासं
तातारब्धोऽभिषेकस्तव किल विहत: केकयाधीशपुत्र्या ॥४॥


:: मार्ग में भृगुकुलतिलक परशुरामजी ने आपके मार्ग में बाधा डाली, फिर आपको
ब्रह्मस्वरूप जान कर अपना समस्त तेज आप ही में न्यौछावर कर के चले गये। हे
कान्तमूर्ते! आप अयोध्या को चले गये और अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
फिर एक दिन शत्रुघ्न के संग भरत जी अपने मामा के निवास स्थान को चले जाने के
बाद आपके पिता ने आपके अभिषेक की तैयारी शुरू की। किन्तु उसमें कैकेय नरेश की
पुत्री कैकेयी ने विघ्न डाल दिया।

तातोक्त्या यातुकामो वनमनुजवधूसंयुतश्चापधार:
पौरानारुध्य मार्गे गुहनिलयगतस्त्वं जटाचीरधारी।
नावा सन्तीर्य गङ्गामधिपदवि पुनस्तं भरद्वाजमारा-
न्नत्वा तद्वाक्यहेतोरतिसुखमवसश्चित्रकूटे गिरीन्द्रे ॥५॥


:: पिता के आदेश से छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नि सीता के साथ आपने धनुष ले कर वन को
प्रस्थान किया। नगरवासियों को मार्ग में ही रोक कर गुह के घर गये और जटा और
वल्कल धारण कर के नौका के द्वारा गङ्गा को पार किया। मार्ग मे, निकट ही में
भरद्वाज मुनि से मिल कर उनको प्रणाम किया और उनके बताए हुए चित्रकूट पर्वत पर
सुख से रहे।

श्रुत्वा पुत्रार्तिखिन्नं खलु भरतमुखात् स्वर्गयातं स्वतातं
तप्तो दत्वाऽम्बु तस्मै निदधिथ भरते पादुकां मेदिनीं च
अत्रिं नत्वाऽथ गत्वा वनमतिविपुलं दण्डकं चण्डकायं
हत्वा दैत्यं विराधं सुगतिमकलयश्चारु भो: शारभङ्गीम् ॥६॥


:: भरत के मुख से सुन कर कि पुत्र के शोक में दुखी हो कर पिता स्वर्ग गामी हो
गये, आपने उनको जलाञ्जलि दी, और भरत को पादुका और राज्य सौंप दिया। फिर आपने
अत्रि  मुनि को प्रणाम किया और अत्यन्त गहन दण्डक वन में प्रवेश किया। वहां
भयंकर और विशाल काया वाले असुर विराध को मारा। हे सुन्दर! आपने शरभङ्ग मुनि को
सुगति प्रदान की।

नत्वाऽगस्त्यं समस्ताशरनिकरसपत्राकृतिं तापसेभ्य:
प्रत्यश्रौषी: प्रियैषी तदनु च मुनिना वैष्णवे दिव्यचापे ।
ब्रह्मास्त्रे चापि दत्ते पथि पितृसुहृदं वीक्ष्य भूयो जटायुं
मोदात् गोदातटान्ते परिरमसि पुरा पञ्चवट्यां वधूट्या ॥७॥


:: तपस्वियों का प्रिय करने के इच्छुक आपने अगस्त्य मुनि को प्रणाम कर के
तपस्वियों के सामने समस्त राक्षस समूदाय का वध करने की प्रतिज्ञा की। मुनि ने
आपको दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किया। मार्ग में पिता के
मित्र जटायु को देख करप्रसन्न हुए। फिर आप गोदावरी नदी के तट पर पञ्चवटी में
पत्नि के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे।

प्राप्ताया: शूर्पणख्या मदनचलधृतेरर्थनैर्निस्सहात्मा
तां सौमित्रौ विसृज्य प्रबलतमरुषा तेन निर्लूननासाम् ।
दृष्ट्वैनां रुष्टचित्तं खरमभिपतितं दूषणं च त्रिमूर्धं
व्याहिंसीराशरानप्ययुतसमधिकांस्तत्क्षणादक्षतोष्मा ॥८॥


:: काम के वशीभूत शूर्पणखा वहां आ पहुंची। उसकी कामुक प्रार्थनाओं से क्षुब्ध हो
कर आपने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने अत्यधिक क्रोधित हो कर उसकी
नाक काट डाली। उसको नासिका रहित देख कर क्रोध में भर कर आक्रमण करने आए खर
दूषण और त्रिशिरा को आपने मार डाला और हे अनन्त तेजस्वी! साथ ही क्षण भर में
ही आपने और भी राक्षसों को मार डाला जो दस हजार से भी अधिक थे।

सोदर्या प्रोक्तवार्ताविवशदशमुखादिष्टमारीचमाया-
सारङ्गं सारसाक्ष्या स्पृहितमनुगत: प्रावधीर्बाणघातम् ।
तन्मायाक्रन्दनिर्यापितभवदनुजां रावणस्तामहार्षी-
त्तेनार्तोऽपि त्वमन्त: किमपि मुदमधास्तद्वधोपायलाभात् ॥९॥


:: अपनी बहन शूर्पणखा से सारे वृत्तान्त को सुन कर, रावण सीता के मोह से विवश हो
गया। उसने मारीच को मायावी हिरण बनने का आदेश दिया। हिरण को देख कर सीता
द्वारा उसकी कामना की जाने पर आपने उसका पीछा किया और धनुष के आघात से उसे मार
दिया। मरते समय उस मायावी हिरण का मायावी क्रन्दन सुन कर सीता ने लक्ष्मण को
जाने पर विवश कर दिया। रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। इस घटना से दुखी होते
हुए भी आप उसके वध के बहाने के लाभ से कुछ प्रसन्न भी हुए।

भूयस्तन्वीं विचिन्वन्नहृत दशमुखस्त्वद्वधूं मद्वधेने-
त्युक्त्वा याते जटायौ दिवमथ सुहृद: प्रातनो: प्रेतकार्यम् ।
गृह्णानं तं कबन्धं जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य पम्पातटे त्वं
सम्प्राप्तो वातसूनुं भृशमुदितमना: पाहि वातालयेश ॥१०॥


:: तदनन्तर कोमलाङ्गी सीता को खोजते हुए आप जटायु से मिले। 'आपकी वधू को रावण हर
कर ले गया है, मुझे मार कर' ऐसा कह कर वह स्वर्ग चला गया। तब आपने अपने मित्र
की प्रेत-क्रिया सम्पन्न की। आपको पकडने वाले कबन्ध का आपने वध किया और शबरी
से मिले। फिर पम्पा तट पर अत्यन्त हर्षित चित्त से हनुमान से मिले। हे
वातालयेश! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

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