Sunday, February 10, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३५






*श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३५ *

नीतस्सुग्रीवमैत्रीं तदनु हनुमता दुन्दुभे: कायमुच्चै:
क्षिप्त्वाङ्गुष्ठेन भूयो लुलुविथ युगपत् पत्रिणा सप्त सालान् ।
हत्वा सुग्रीवघातोद्यतमतुलबलं बालिनं व्याजवृत्त्या
वर्षावेलामनैषीर्विरहतरलितस्त्वं मतङ्गाश्रमान्ते ॥१॥

:: उसके बाद हनुमान ने सुग्रीव से मैत्री करवाई। दुन्दुभि के शव को आपने पांव के
अङ्गूठे से दूर फेंक दिया और एक ही बाण से सात साल वृक्षों को काट डाला। फिर
आपने सुग्रीव को मारने में उद्यमी अत्यन्त वीर बालि को चतुराई से मार डाला।
विरह से कातर आपने वर्षा ऋतु मतङ्ग मुनि के आश्रम के पास बिताई।

सुग्रीवेणानुजोक्त्या सभयमभियता व्यूहितां वाहिनीं ता-
मृक्षाणां वीक्ष्य दिक्षु द्रुतमथ दयितामार्गणायावनम्राम् ।
सन्देशं चाङ्गुलीयं पवनसुतकरे प्रादिशो मोदशाली
मार्गे मार्गे ममार्गे कपिभिरपि तदा त्वत्प्रिया सप्रयासै: ॥२॥

:: भाई लक्ष्मण के द्वारा शासित किए जाने पर भयभीत सुग्रीव आये और उन्होंने तब
भालूओं और वानरों की सेना इकट्ठी करके सब दिशाओं में शीघ्रता से आपकी पत्नि को
खोजने के लिये प्रस्तुत किया। उस सेना को देख कर प्रसन्नचित्त होकर हनुमान के
हाथ में सीता के लिय अङ्गूठी और सन्देश दिया। वानरों ने भी मार्ग मार्ग में
आपकी प्रिया को सप्रयास खोजा।

त्वद्वार्ताकर्णनोद्यद्गरुदुरुजवसम्पातिसम्पातिवाक्य-
प्रोत्तीर्णार्णोधिरन्तर्नगरि जनकजां वीक्ष्य दत्वाङ्गुलीयम् ।
प्रक्षुद्योद्यानमक्षक्षपणचणरण: सोढबन्धो दशास्यं
दृष्ट्वा प्लुष्ट्वा च लङ्कां झटिति स हनुमान् मौलिरत्नं ददौ ते ॥३॥

:: आपकी वार्ता सुन कर सम्पाति के पर वेग से निकल आये और उसके कहने पर हनुमान ने
समुद्र को लांघ कर लङ्का में प्रवेश किया। वहां जानकी को देख कर उनको अङ्गूठी
दी और अशोक वाटिका को रौंद डाला। रण में निपुण हनुमान ने अक्ष कुमार को मार
दिया और ब्रह्मास्त्र बन्धन को स्वीकार किया। रावण को देखने के बाद उन्होंने
लङ्का को जला दिया और शीघ्र ही लौट कर आपको चूडामणि दी।

त्वं सुग्रीवाङ्गदादिप्रबलकपिचमूचक्रविक्रान्तभूमी-
चक्रोऽभिक्रम्य पारेजलधि निशिचरेन्द्रानुजाश्रीयमाण: ।
तत्प्रोक्तां शत्रुवार्तां रहसि निशमयन् प्रार्थनापार्थ्यरोष-
प्रास्ताग्नेयास्त्रतेजस्त्रसदुदधिगिरा लब्धवान् मध्यमार्गम् ॥४॥

:: सुग्रीव और अङ्गद आदि अनेक प्रबल वानरों की सेना ले कर ने भूमितल का अतिक्रमण
करके समुद्र को लांघने के विचार से आप समुद्र के तट पर पहुंचे।आपकी शरण लेते
हुए रावण के छोटे भाई ने शत्रु का पूर्ण रहस्यमय वृतान्त आपको सुनाया। फिर
आपने समुद्र से मार्ग देने की प्रार्थना की। प्रार्थना के निष्फल होने से
क्रोध में आपने आग्नेयास्त्र भेजा। उससे भयभीत हो कर समुद्र देव आपके सामने
उपस्थित हुए और उनके कहने पर समुद्र ने आपके लिए मार्ग प्रस्तुत कर दिया।

कीशैराशान्तरोपाहृतगिरिनिकरै: सेतुमाधाप्य यातो
यातून्यामर्द्य दंष्ट्रानखशिखरिशिलासालशस्त्रै: स्वसैन्यै: ।
व्याकुर्वन् सानुजस्त्वं समरभुवि परं विक्रमं शक्रजेत्रा
वेगान्नागास्त्रबद्ध: पतगपतिगरुन्मारुतैर्मोचितोऽभू: ॥५॥

:: वानरों के द्वारा सभी दिशाओं से लाये गये पर्वत खण्डों से सेतु का निर्माण कर
के आप लङ्का पहुंचे। दांतों, नखों, पर्वतों, चट्टानों, वृक्षों और शस्त्रों से
राक्षसों को मार कर वानर सेना ने अपने बल का प्रदर्शन किया। महान पराक्रमी आप
अपने भाई के संग इन्द्रजित के द्वारा बडे वेग से नागास्त्र से बांध लिये गये।
तब गरुड के पंखों की वायु से आप मुक्त हुए।

सौमित्रिस्त्वत्र शक्तिप्रहृतिगलदसुर्वातजानीतशैल-
घ्राणात् प्राणानुपेतो व्यकृणुत कुसृतिश्लाघिनं मेघनादम् ।
मायाक्षोभेषु वैभीषणवचनहृतस्तम्भन: कुम्भकर्णं
सम्प्राप्तं कम्पितोर्वीतलमखिलचमूभक्षिणं व्यक्षिणोस्त्वम् ॥६॥

:: वहां उस संग्राम में शक्ति के प्रहार से जब लक्ष्मण प्राण त्यागने लगे, तब
हनुमान द्वारा लाई गई पर्वतौषधि को सूघ कर लक्ष्मण ने फिर से प्राण लाभ किये
और मायावी विद्याओं में पटु मेघनाद को मार दिया। माया से क्षुभित हुई सेना को
विभीषण के बताये हुए उपाय से आपने स्तम्भन से मुक्त कर दिया। कुम्भकर्ण के
रणभूमि में आने से पृथ्वी डोलने लगी और वह वानर सेना को खाने लगा तब आपने उसे
मार डाला।

गृह्णन् जम्भारिसंप्रेषितरथकवचौ रावणेनाभियुद्ध्यन्
ब्रह्मास्त्रेणास्य भिन्दन् गलततिमबलामग्निशुद्धां प्रगृह्णन् ।
देवश्रेणीवरोज्जीवितसमरमृतैरक्षतै: ऋक्षसङ्घै-
र्लङ्काभर्त्रा च साकं निजनगरमगा: सप्रिय: पुष्पकेण ॥७॥

:: आपने इन्द्र के द्वारा भेजे हुए रथ और कवच को स्वीकार किया और रावण से युद्ध
करते हुए उसके शिर समूहों को काट डाला। अबला सीता को अग्नि परीक्षा के बाद
ग्रहण किया। देवों की श्रेणी में श्रेष्ठ इन्द्र के द्वारा रण भूमि में हत
रीछों और वानरों को पुन: जीवित किया और उनको क्षतों से विहीन किया। तदन्तर आप
प्रिया और लङ्का के राजा विभीषण के संग पुष्पक विमान पर आरूढ हो कर अपने नगर
को आये।
 
प्रीतो दिव्याभिषेकैरयुतसमधिकान् वत्सरान् पर्यरंसी-
र्मैथिल्यां पापवाचा शिव! शिव! किल तां गर्भिणीमभ्यहासी: ।
शत्रुघ्नेनार्दयित्वा लवणनिशिचरं प्रार्दय: शूद्रपाशं
तावद्वाल्मीकिगेहे कृतवसतिरुपासूत सीता सुतौ ते ॥८॥

:: दिव्य राज्याभिषेक से प्रसन्न हो कर आपने दस हजा वर्षों से अधिक अवधि तक
सुखपूर्वक राज्य किया। मैथिली के प्रति अपवचन सुन कर, आपने, गर्भिणी अवस्था
में भी उसे त्याग दिया । शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार दिया और आपने शूद्र मुनि
का संहार कर दिया। वाल्मीकि मुनि के आश्रम में निवास करती हुई सीता ने आपके दो
पुत्रों को जन्म दिया।
 
वाल्मीकेस्त्वत्सुतोद्गापितमधुरकृतेराज्ञया यज्ञवाटे
सीतां त्वय्याप्तुकामे क्षितिमविशदसौ त्वं च कालार्थितोऽभू: ।
हेतो: सौमित्रिघाती स्वयमथ सरयूमग्ननिश्शेषभृत्यै:
साकं नाकं प्रयातो निजपदमगमो देव वैकुण्ठमाद्यम् ॥९॥

:: वाल्मीकि मुनि की मधुर काव्य रचना को उनकी आज्ञा से आपके पुत्रों ने यज्ञशाला
में गाया। आपने वहां सीता को ग्रहण करने की इच्छा की, लिकिन वह धरती में समा
गई। निमित्तवश आपने लक्ष्मण को त्याग दिया और काल रूपी यम ने आपसे लौटने की
प्रार्थना की। तब आपने स्वयं सरयू के जल में समाधि ले ली और हे देव! अपने सभी
सेवकों के संग स्वर्ग में जा कर, वैकुण्ठ से भी परे अपने निवास को चले गये।

सोऽयं मर्त्यावतारस्तव खलु नियतं मर्त्यशिक्षार्थमेवं
विश्लेषार्तिर्निरागस्त्यजनमपि भवेत् कामधर्मातिसक्त्या ।
नो चेत् स्वात्मानुभूते: क्व नु तव मनसो विक्रिया चक्रपाणे
स त्वं सत्त्वैकमूर्ते पवनपुरपते व्याधुनु व्याधितापान् ॥१०॥

:: राम रूप में आपका यह मर्त्य अवतार निश्चय ही मनुष्यों की शिक्षा के लिये नियत
था। विरह की पीडा और निरपराधी का त्याग, काम और धर्म के प्रति अत्यधिक आसक्ति
के कारण ही सम्भव होते हैं। अन्यथा, हे चक्रपाणि! स्वयं अपनी आत्मा में स्थित
आपमें यह विकार कैसे सम्भव है? एक मात्र सत्व स्वरूप, हे पवनपुरपते! मेरे रोगो
जनित कष्टों को नष्ट कीजिये।

*ॐ नमो नारायणाय ..*





श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३४






*श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३४ *

गीर्वाणैरर्थ्यमानो दशमुखनिधनं कोसलेष्वृश्यशृङ्गे
पुत्रीयामिष्टिमिष्ट्वा ददुषि दशरथक्ष्माभृते पायसाग्र्यम् ।
तद्भुक्त्या तत्पुरन्ध्रीष्वपि तिसृषु समं जातगर्भासु जातो
रामस्त्वं लक्ष्मणेन स्वयमथ भरतेनापि शत्रुघ्ननाम्ना ॥१॥


:: देवताओं ने रावण के वध के लिये आपकी प्रार्थना की। कोशल देश में ऋश्यशृङ्ग ऋषि
के द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान करवा लेने पर आपने राजा दशरथ को
दिव्य पायस दिया। राजा दशरथ की तीनों पत्नियां उस पायस को खा कर एक साथ
गर्भवती हो गईं। तब आपने राम रूप में जन्म लिया। लक्ष्मण भी आप हे थे और भरत
और शत्रुघ्न नाम्ना भी आप ही थे।

कोदण्डी कौशिकस्य क्रतुवरमवितुं लक्ष्मणेनानुयातो
यातोऽभूस्तातवाचा मुनिकथितमनुद्वन्द्वशान्ताध्वखेद: ।
नृणां त्राणाय बाणैर्मुनिवचनबलात्ताटकां पाटयित्वा
लब्ध्वास्मादस्त्रजालं मुनिवनमगमो देव सिद्धाश्रमाख्यम् ॥२॥


:: पिता की आज्ञा से कोदण्ड नामक धनुष को धारण किये हुए आप, लक्ष्मण के साथ कौशिक
मुनि के श्रेष्ठ यज्ञ की रखवाली के लिये गये। मार्ग की क्लान्ति को दूर करने
के लिये मुनि ने आपको दो मन्त्रों का उपदेश दिया। लोगों की रक्षा के लिये मुनि
की आज्ञा से आपने ताडका को चीर डाला। हे देव! मुनि से बहुत प्रकार के अस्त्र
प्राप्त कर के आप उन के साथ वन में सिद्धाश्रम गये।

मारीचं द्रावयित्वा मखशिरसि शरैरन्यरक्षांसि निघ्नन्
कल्यां कुर्वन्नहल्यां पथि पदरजसा प्राप्य वैदेहगेहम् ।
भिन्दानश्चान्द्रचूडं धनुरवनिसुतामिन्दिरामेव लब्ध्वा
राज्यं प्रातिष्ठथास्त्वं त्रिभिरपि च समं भ्रातृवीरैस्सदारै: ॥३॥


:: यज्ञ के प्रारम्भ में आपने मारीच को खदेड कर अन्य राक्षसों को बाणों से मार
दिया। मार्ग में अपनी पगधूलि से अहिल्या को पवित्र करके श्राप मुक्त किया।
जनकपुरी पहुंच कर शंकर जी के धनुष को तोड दिया और लक्ष्मी स्वरूपा भूमि पुत्री
सीता का पत्नी रूप में वरण किया। तत्पश्चात आपने अपने तीनों वीर भ्राताओं और
उनकी पत्नियों के साथ अपने राज्य अयोध्या को प्रस्थान किया।

आरुन्धाने रुषान्धे भृगुकुल तिलके संक्रमय्य स्वतेजो
याते यातोऽस्ययोध्यां सुखमिह निवसन् कान्तया कान्तमूर्ते ।
शत्रुघ्नेनैकदाथो गतवति भरते मातुलस्याधिवासं
तातारब्धोऽभिषेकस्तव किल विहत: केकयाधीशपुत्र्या ॥४॥


:: मार्ग में भृगुकुलतिलक परशुरामजी ने आपके मार्ग में बाधा डाली, फिर आपको
ब्रह्मस्वरूप जान कर अपना समस्त तेज आप ही में न्यौछावर कर के चले गये। हे
कान्तमूर्ते! आप अयोध्या को चले गये और अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
फिर एक दिन शत्रुघ्न के संग भरत जी अपने मामा के निवास स्थान को चले जाने के
बाद आपके पिता ने आपके अभिषेक की तैयारी शुरू की। किन्तु उसमें कैकेय नरेश की
पुत्री कैकेयी ने विघ्न डाल दिया।

तातोक्त्या यातुकामो वनमनुजवधूसंयुतश्चापधार:
पौरानारुध्य मार्गे गुहनिलयगतस्त्वं जटाचीरधारी।
नावा सन्तीर्य गङ्गामधिपदवि पुनस्तं भरद्वाजमारा-
न्नत्वा तद्वाक्यहेतोरतिसुखमवसश्चित्रकूटे गिरीन्द्रे ॥५॥


:: पिता के आदेश से छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नि सीता के साथ आपने धनुष ले कर वन को
प्रस्थान किया। नगरवासियों को मार्ग में ही रोक कर गुह के घर गये और जटा और
वल्कल धारण कर के नौका के द्वारा गङ्गा को पार किया। मार्ग मे, निकट ही में
भरद्वाज मुनि से मिल कर उनको प्रणाम किया और उनके बताए हुए चित्रकूट पर्वत पर
सुख से रहे।

श्रुत्वा पुत्रार्तिखिन्नं खलु भरतमुखात् स्वर्गयातं स्वतातं
तप्तो दत्वाऽम्बु तस्मै निदधिथ भरते पादुकां मेदिनीं च
अत्रिं नत्वाऽथ गत्वा वनमतिविपुलं दण्डकं चण्डकायं
हत्वा दैत्यं विराधं सुगतिमकलयश्चारु भो: शारभङ्गीम् ॥६॥


:: भरत के मुख से सुन कर कि पुत्र के शोक में दुखी हो कर पिता स्वर्ग गामी हो
गये, आपने उनको जलाञ्जलि दी, और भरत को पादुका और राज्य सौंप दिया। फिर आपने
अत्रि  मुनि को प्रणाम किया और अत्यन्त गहन दण्डक वन में प्रवेश किया। वहां
भयंकर और विशाल काया वाले असुर विराध को मारा। हे सुन्दर! आपने शरभङ्ग मुनि को
सुगति प्रदान की।

नत्वाऽगस्त्यं समस्ताशरनिकरसपत्राकृतिं तापसेभ्य:
प्रत्यश्रौषी: प्रियैषी तदनु च मुनिना वैष्णवे दिव्यचापे ।
ब्रह्मास्त्रे चापि दत्ते पथि पितृसुहृदं वीक्ष्य भूयो जटायुं
मोदात् गोदातटान्ते परिरमसि पुरा पञ्चवट्यां वधूट्या ॥७॥


:: तपस्वियों का प्रिय करने के इच्छुक आपने अगस्त्य मुनि को प्रणाम कर के
तपस्वियों के सामने समस्त राक्षस समूदाय का वध करने की प्रतिज्ञा की। मुनि ने
आपको दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किया। मार्ग में पिता के
मित्र जटायु को देख करप्रसन्न हुए। फिर आप गोदावरी नदी के तट पर पञ्चवटी में
पत्नि के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे।

प्राप्ताया: शूर्पणख्या मदनचलधृतेरर्थनैर्निस्सहात्मा
तां सौमित्रौ विसृज्य प्रबलतमरुषा तेन निर्लूननासाम् ।
दृष्ट्वैनां रुष्टचित्तं खरमभिपतितं दूषणं च त्रिमूर्धं
व्याहिंसीराशरानप्ययुतसमधिकांस्तत्क्षणादक्षतोष्मा ॥८॥


:: काम के वशीभूत शूर्पणखा वहां आ पहुंची। उसकी कामुक प्रार्थनाओं से क्षुब्ध हो
कर आपने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने अत्यधिक क्रोधित हो कर उसकी
नाक काट डाली। उसको नासिका रहित देख कर क्रोध में भर कर आक्रमण करने आए खर
दूषण और त्रिशिरा को आपने मार डाला और हे अनन्त तेजस्वी! साथ ही क्षण भर में
ही आपने और भी राक्षसों को मार डाला जो दस हजार से भी अधिक थे।

सोदर्या प्रोक्तवार्ताविवशदशमुखादिष्टमारीचमाया-
सारङ्गं सारसाक्ष्या स्पृहितमनुगत: प्रावधीर्बाणघातम् ।
तन्मायाक्रन्दनिर्यापितभवदनुजां रावणस्तामहार्षी-
त्तेनार्तोऽपि त्वमन्त: किमपि मुदमधास्तद्वधोपायलाभात् ॥९॥


:: अपनी बहन शूर्पणखा से सारे वृत्तान्त को सुन कर, रावण सीता के मोह से विवश हो
गया। उसने मारीच को मायावी हिरण बनने का आदेश दिया। हिरण को देख कर सीता
द्वारा उसकी कामना की जाने पर आपने उसका पीछा किया और धनुष के आघात से उसे मार
दिया। मरते समय उस मायावी हिरण का मायावी क्रन्दन सुन कर सीता ने लक्ष्मण को
जाने पर विवश कर दिया। रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। इस घटना से दुखी होते
हुए भी आप उसके वध के बहाने के लाभ से कुछ प्रसन्न भी हुए।

भूयस्तन्वीं विचिन्वन्नहृत दशमुखस्त्वद्वधूं मद्वधेने-
त्युक्त्वा याते जटायौ दिवमथ सुहृद: प्रातनो: प्रेतकार्यम् ।
गृह्णानं तं कबन्धं जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य पम्पातटे त्वं
सम्प्राप्तो वातसूनुं भृशमुदितमना: पाहि वातालयेश ॥१०॥


:: तदनन्तर कोमलाङ्गी सीता को खोजते हुए आप जटायु से मिले। 'आपकी वधू को रावण हर
कर ले गया है, मुझे मार कर' ऐसा कह कर वह स्वर्ग चला गया। तब आपने अपने मित्र
की प्रेत-क्रिया सम्पन्न की। आपको पकडने वाले कबन्ध का आपने वध किया और शबरी
से मिले। फिर पम्पा तट पर अत्यन्त हर्षित चित्त से हनुमान से मिले। हे
वातालयेश! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २३





श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २३

प्राचेतसस्तु भगवन्नपरो हि दक्ष-
स्त्वत्सेवनं व्यधित सर्गविवृद्धिकाम: ।
आविर्बभूविथ तदा लसदष्टबाहु-
स्तस्मै वरं ददिथ तां च वधूमक्षणीम॥१॥

:: ब्रह्म पुत्र दक्ष से भिन्न, प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने सर्ग की वृद्धि की कामना से आपकी सेवा की और पूजन किया। तब अष्ट भुजाओं से सुशोभित आप उसके समक्ष प्रकट हुए। आपने उसको वरदान दिया और अक्षणी नाम की पत्नी भी दी।

तस्यात्मजास्त्वयुतमीश पुनस्सहस्रं
श्रीनारदस्य वचसा तव मार्गमापु: ।
नैकत्रवासमृषये स मुमोच शापं
भक्तोत्तमस्त्वृषिरनुग्रहमेव मेने ॥२॥

:: दक्ष के दस हजार और एक हजार, अर्थात ग्यारह हजार पुत्र हुए। श्री नारद के उपदेश से वे सब आपके मार्ग में प्रवृत्त हो गये। इस पर दक्ष ने नारद जी को एक स्थान पर टिक कर न रहने का शाप दिया। भक्त श्रेष्ठ नारद ने इसे शाप न मान कर अनुग्रह ही माना।

षष्ट्या ततो दुहितृभि: सृजत: कुलौघान्
दौहित्रसूनुरथ तस्य स विश्वरूप: । 
त्वत्स्तोत्रवर्मितमजापयदिन्द्रमाजौ
देव त्वदीयमहिमा खलु सर्वजैत्र: ॥३॥

:: तब दक्ष ने अपनी साठ कन्याओं के द्वारा विभिन्न चराचर कुल समूहों को उत्पन्न किया। उसके दौहित्र के पुत्र विश्वरूप ने इन्द्र से नारायण कवच का जप करवाया और युद्ध में विजय प्राप्त करवाई। हे भगवन! निश्चय ही आपकी महिमा सर्व जयी है।

प्राक्शूरसेनविषये किल चित्रकेतु:
पुत्राग्रही नृपतिरङ्गिरस: प्रभावात् ।
लब्ध्वैकपुत्रमथ तत्र हते सपत्नी-
सङ्घैरमुह्यदवशस्तव माययासौ ॥४॥

:: पूर्वकाल में शूरसेन के राज्य में चित्रकेतु नाम के राजा हुए। पुत्र के इच्छुक राजाने ऋषि अङ्गिरस के प्रभाव से पुत्र प्राप्त किया। लेकिन रानी की सौतों ने उसे मार दिया। दु:ख से कातर राजा आपकी माया से सम्मोहित हो कर अचेतन हो गये।

तं नारदस्तु सममङ्गिरसा दयालु:
सम्प्राप्य तावदुपदर्श्य सुतस्य जीवम् ।
कस्यास्मि पुत्र इति तस्य गिरा विमोहं
त्यक्त्वा त्वदर्चनविधौ नृपतिं न्ययुङ्क्त ॥५॥

:: तब निश्चय ही दयालु नारद अङ्गिरस के संग उस राजा चित्रकेतु के पास गये। वहां उसे उसके पुत्र का जीव दिखाया। पुत्र ने पूछा कि वह किसका पुत्र है? उसकी वाणी से राजा का मोह दूर हो गया और वह आपकी अर्चना के विधान में प्रवृत्त हो गये।

स्तोत्रं च मन्त्रमपि नारदतोऽथ लब्ध्वा
तोषाय शेषवपुषो ननु ते तपस्यन् ।
विद्याधराधिपतितां स हि सप्तरात्रे लब्ध्वाप्यकुण्ठमतिरन्वभजद्भवन्तम् ॥६॥

:: राजा चित्रकेतु ने नारद ही से स्तोत्र और मन्त्र पाया और आपके शेष स्वरूप की प्रसन्नता के लिये आपकी तपस्या करने लगे। सात रात्रियों में ही उन्होने विद्याधर के अधिपत्य को प्राप्त कर लिया। इस प्रकार और भी अकुण्ठित और निर्मल बुद्धि वाले हो कर वे आपका भजन करने लगे।

तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा
रूपेण बद्धनुतिसिद्धगणावृतेन ।
प्रादुर्भवन्नचिरतो नुतिभि: प्रसन्नो
दत्वाऽऽत्मतत्त्वमनुगृह्य तिरोदधाथ ॥७॥

::तदन्तर चित्रकेतु की स्तुतियों से प्रसन्न हो कर आप कमल नाल के समान श्वेत सहस्र फणो वाले स्वरूप से उनके लिये प्रकट हो गये। उस समय आप सतत स्तुति करते हुए सिद्धगणों से घिरे हुए थे। आपने राजापर अनुग्रह कर के उन्हें तुरन्त आत्म तत्व का ज्ञान दिया और अन्तर्धान हो गये।

त्वद्भक्तमौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं
वर्षाणि हर्षुलमना भुवनेषु कामम् ।
सङ्गापयन् गुणगणं तव सुन्दरीभि:
सङ्गातिरेकरहितो ललितं चचार ॥८॥

:: आपके भक्त शिरोमणि राजा चित्रकेतु, प्रसन्न चित्त हो कर, लाख लाख वर्षों तक समस्त भुवनों में, सुन्दरी विद्याधरियों के द्वारा आपके गुण गणों का गान कराते रहे। वे स्वयं अत्यन्त अनासक्ति के सङ्ग स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते रहे।

अत्यन्तसङ्गविलयाय भवत्प्रणुन्नो
नूनं स रूप्यगिरिमाप्य महत्समाजे ।
निश्शङ्कमङ्ककृतवल्लभमङ्गजारिं
तं शङ्करं परिहसन्नुमयाभिशेपे ॥९॥

::अपनी आसक्तियों को पूर्ण रूप से त्यागने के लिये, आप से प्रेरित हो कर, वे रूप्य गिरि - कैलाश पर पहुंचे। वहां साधु समाज में, नि्श्शङ्क भाव से अपनी पत्नि पार्वती को अङ्क में बैठाये हुए शंकर को देख कर, उनका परिहास किया। इस पर उमा ने चित्रकेतु को शापित किया।

निस्सम्भ्रमस्त्वयमयाचितशापमोक्षो
वृत्रासुरत्वमुपगम्य सुरेन्द्रयोधी ।
भक्त्यात्मतत्त्वकथनै: समरे विचित्रं
शत्रोरपि भ्रममपास्य गत: पदं ते ॥१०॥

::चित्रकेतु ने अविचिलित रहते हुए शाप से मुक्ति की भी याचना नहीं की, और वृत्रासुरत्व को प्राप्त कर के इन्द्र से युद्ध किया। युद्ध में ही अत्यन्त भक्ति पूर्वक उन्होंने आत्मतत्व का निरूपण किया। और आश्चर्य है कि उससे शत्रु का भी मोह भ्रम दूर हो गया। फिर वे आप के निवास स्थान को चले गये।

त्वत्सेवनेन दितिरिन्द्रवधोद्यताऽपि
तान्प्रत्युतेन्द्रसुहृदो मरुतोऽभिलेभे ।
दुष्टाशयेऽपि शुभदैव भवन्निषेवा
तत्तादृशस्त्वमव मां पवनालयेश ॥११॥

:: दिति इन्द्र का वध करने की इच्छुक थी। किन्तु आपकी अर्चना करने से उसे इन्द्र के मित्र मरुत्गणो की प्राप्ति हुई। आपकी अर्चना के प्रभाव से दूषित संकल्पों वालों के भी संकल्प शुभ दायी हो जाते हैं। वही इस प्रकार के आप मेरी रक्षा करें, हे पवनालय के ईश्वर!

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् दशक - ३३







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३३

वैवस्वताख्यमनुपुत्रनभागजात-
नाभागनामकनरेन्द्रसुतोऽम्बरीष: ।
सप्तार्णवावृतमहीदयितोऽपि रेमे
त्वत्सङ्गिषु त्वयि च मग्नमनास्सदैव ॥१॥


:: वैवस्वत मनु के पुत्र नभाग के नाभाग नामक पुत्र हुए। नाभाग के पुत्र अम्बरीष सातों समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी के स्वामी होते हुए भी आपके भक्तों के सङ्ग में आनन्द पाते थे और उनका मन सदा आपमें मग्न रहता था।

त्वत्प्रीतये सकलमेव वितन्वतोऽस्य
भक्त्यैव देव नचिरादभृथा: प्रसादम् ।
येनास्य याचनमृतेऽप्यभिरक्षणार्थं
चक्रं भवान् प्रविततार सहस्रधारम् ॥२॥


:: आपकी प्रसन्नता के लिये लौकिक वैदिक सभी कर्मों को करते हुए, अपनी भक्ति के द्वारा इन्हें शीघ्र ही आपकी कृपा प्राप्त हो गई। उनके याचना न करने पर भी आपने अपने सहस्र धाराओं वाले सुदर्शन चक्र को उनकी रक्षा के लिये नियुक्त किया।

स द्वादशीव्रतमथो भवदर्चनार्थं
वर्षं दधौ मधुवने यमुनोपकण्ठे ।
पत्न्या समं सुमनसा महतीं वितन्वन्
पूजां द्विजेषु विसृजन् पशुषष्टिकोटिम् ॥३॥


:: तब अम्बरीष ने आपकी अर्चना के लिये एक वर्ष के द्वादशी व्रत का संकल्प किया। उन्होंने अपनी भक्तिमति पत्नी के साथ यमुना के तट पर मधुवन में भव्य पूजा का अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को साठ करोड गौएं दान में दीं।

तत्राथ पारणदिने भवदर्चनान्ते
दुर्वाससाऽस्य मुनिना भवनं प्रपेदे ।
भोक्तुं वृतश्चस नृपेण परार्तिशीलो
मन्दं जगाम यमुनां नियमान्विधास्यन् ॥४॥


:: वहां, तब, भोजन पाने के दिन, आपकी पूजा के बाद, भवन में दुर्वासा मुनि का आगमन हुआ। राजा ने उनको भोजन के लिये आमन्त्रित किया। वे मुनि, पर पीडा में पटु, अपने नियमॊं का पालन करने के लिये यमुना नदी की ओर मन्द गति से गये।

राज्ञाऽथ पारणमुहूर्तसमाप्तिखेदा-
द्वारैव पारणमकारि भवत्परेण ।
प्राप्तो मुनिस्तदथ दिव्यदृशा विजानन्
क्षिप्यन् क्रुधोद्धृतजटो विततान कृत्याम् ॥५॥


:: भोजन ग्रहण करने के मुहुर्त के समाप्त हो जाने के कारण दुख आपके भक्त राजा ने जल से ही पारण कर के व्रत को समाप्त किया। लौटने पर दुर्वासा मुनि अपनी दिव्य दृष्टि से जान गये कि पारण हो गया है। तब राजा को झिडकते हुए मुनि ने क्रोध से अपनी जटा को खोल कर कृत्या को उत्पन्न किया।

कृत्यां च तामसिधरां भुवनं दहन्ती-
मग्रेऽभिवीक्ष्यनृपतिर्न पदाच्चकम्पे ।
त्वद्भक्तबाधमभिवीक्ष्य सुदर्शनं ते
कृत्यानलं शलभयन् मुनिमन्वधावीत् ॥६॥


:: हाथ में खड्ग लिये हुए तीनों लोकों को जलाते हुए, कृत्या को सामने देख कर भी राजा अम्बरीष जरा भी विचलित नहीं हुए। आपके भक्त को संकट में देख कर आपके सुदर्शन चक्र ने अग्नि में पतङ्गे के समान कृत्या को भस्म कर दिया और दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा।

धावन्नशेषभुवनेषु भिया स पश्यन्
विश्वत्र चक्रमपि ते गतवान् विरिञ्चम् ।
क: कालचक्रमतिलङ्घयतीत्यपास्त:
शर्वं ययौ स च भवन्तमवन्दतैव ॥७॥


:: समस्त भुवनों में भागते हुए दुर्वासा को सर्वत्र आपका सुदर्शन चक्र ही पीछा करता हुआ दिखाई दिया। भयभीत हो कर वे ब्रह्मा जी के पास गये, किन्तु ब्रह्मा जी ने यह कह कर लौटा दिया कि 'काल के चक्र को कौन लांघ सकता है'। फिर वे शंकर जी के पास गये। शंकर जी ने आप ही की वन्दना की।

भूयो भवन्निलयमेत्य मुनिं नमन्तं
प्रोचे भवानहमृषे ननु भक्तदास: ।
ज्ञानं तपश्च विनयान्वितमेव मान्यं
याह्यम्बरीषपदमेव भजेति भूमन् ॥८॥


:: हे भूमन! अन्त में दुर्वासा आपके निवास वैकुण्ठ पहुंचे। तब आपको नमन करते हुए उन मुनि से आपने कहा - 'हे ऋषि! मैं तो अपने भक्तों का दास हूं। ज्ञान और तप, विनययुक्त हो कर ही आदर पाते हैं। जाइये, आप अम्बरीष के ही चरणों में नमन कीजिये।'

तावत्समेत्य मुनिना स गृहीतपादो
राजाऽपसृत्य भवदस्त्रमसावनौषीत् ।
चक्रे गते मुनिरदादखिलाशिषोऽस्मै
त्वद्भक्तिमागसि कृतेऽपि कृपां च शंसन् ॥९॥


:: तब अम्बरीष के पास जा कर मुनि ने उनके चरण पकड लिये। अम्बरीष पीछे हट गये और सुदर्शन चक्र की स्तुति की। चक्र के चले जाने पर मुनि ने आपके भक्त अम्बरीष का अपराधी होने के बावहूद उनके द्वारा प्राप्त कृपा की प्रशंसा करते हुए उन्हें अनन्त आशीष दिए।

राजा प्रतीक्ष्य मुनिमेकसमामनाश्वान्
सम्भोज्य साधु तमृषिं विसृजन् प्रसन्नम् ।
भुक्त्वा स्वयं त्वयि ततोऽपि दृढं रतोऽभू-
त्सायुज्यमाप च स मां पवनेश पाया: ॥१०॥


:: राजा ने एक वर्ष तक निराहार रह मुनि की प्रतीक्षा की, फिर उन्हे भली भांति भोजन करा कर प्रसन्नता पूर्वक विदा करने के पश्चात स्वयं ने भोजन किया। अम्बरीष आपमें पहले से भी अधिक अनुरक्त हो गये और आपका सायुज्य प्राप्त किया। हे पवनेश! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..


श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३२






श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३२
पुरा हयग्रीवमहासुरेण षष्ठान्तरान्तोद्यदकाण्डकल्पे ।
निद्रोन्मुखब्रह्ममुखात् हृतेषु वेदेष्वधित्स: किल मत्स्यरूपम् ॥१॥


:: प्राचीन काल में, छठे मन्वन्तर के अन्त में नैमित्तिक प्रलय के उदित होने के समय, हयग्रीव नामक महासुर ने निद्रोन्मुख ब्रह्मा के मुख से वेदों को चुरा लिया। निश्चय ही तब आपने मत्स्य रूप धारण करने की इच्छा की।

सत्यव्रतस्य द्रमिलाधिभर्तुर्नदीजले तर्पयतस्तदानीम् ।
कराञ्जलौ सञ्ज्वलिताकृतिस्त्वमदृश्यथा: कश्चन बालमीन: ॥२॥


:: द्रमिल देश के राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में तर्पण कर रहे थे। तब उनके हाथों की अञ्जलि में प्रकाशमान आप किसी छोटी मछली के रूप में दिखाई दिये।

क्षिप्तं जले त्वां चकितं विलोक्य निन्येऽम्बुपात्रेण मुनि: स्वगेहम् ।
स्वल्पैरहोभि: कलशीं च कूपं वापीं सरश्चानशिषे विभो त्वम् ॥३॥


:: जब मुनि ने आपको जल में फेक दिया तब आप अचंभित दिखाई दिये। तब मुनि आपको अपने जल के पात्र में डाल कर अपने घर ले गये। हे विभो! थोडे ही दिनों में आपकी आकृति कलश और कूप, वापी और तालाब की सीमाओं का अतिक्रमण करके बढने लगी।

योगप्रभावाद्भवदाज्ञयैव नीतस्ततस्त्वं मुनिना पयोधिम् ।
पृष्टोऽमुना कल्पदिदृक्षुमेनं सप्ताहमास्वेति वदन्नयासी: ॥४॥


:: योग के प्रभाव से और आपकी ही आज्ञा से मुनि आपके मत्स्य स्वरूप को सागर में ले गये। मुनि के द्वारा पूछे जाने पर और प्रलय देखने की इच्छा व्यक्त करने पर आप उन्हे सात दिनों तक प्रतीक्षा करने के लिए कह कर अन्तर्धान हो गये।

प्राप्ते त्वदुक्तेऽहनि वारिधारापरिप्लुते भूमितले मुनीन्द्र: ।
सप्तर्षिभि: सार्धमपारवारिण्युद्घूर्णमान: शरणं ययौ त्वाम् ॥५॥


:: आपका कहा हुआ दिन आ पहुंचा, और सारी पृथ्वी का तल वर्षा के जल से परिप्लावित हो गया। तब मुनीन्द्र सप्त ऋषियों के संग उस असीम जल में गोते लगाते हुए आपकी शरण में गये।

धरां त्वदादेशकरीमवाप्तां नौरूपिणीमारुरुहुस्तदा ते
तत्कम्पकम्प्रेषु च तेषु भूयस्त्वमम्बुधेराविरभूर्महीयान् ॥६॥


:: आपके आदेशों का पालन करने वाली पृथ्वी नौका के रूप में पहुंच गई, और वे सब उस पर आरूढ हो गए। नौका के डगमगाने से सब भयभीत हो गए, तब आप फिर से ऐश्वर्यशाली मत्स्य के रूप में जल राशि में प्रकट हुए।

झषाकृतिं योजनलक्षदीर्घां दधानमुच्चैस्तरतेजसं त्वाम् ।
निरीक्ष्य तुष्टा मुनयस्त्वदुक्त्या त्वत्तुङ्गशृङ्गे तरणिं बबन्धु: ॥७॥


:: एक लाख योजन वाले मत्स्य की आकृति में अति उत्कृष्ट तेज युक्त आपको देख कर मुनिगण अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। फिर आपके कहने पर उन्होंने आपके उत्तुङ्ग सींग से नौका को बांध दिया।

आकृष्टनौको मुनिमण्डलाय प्रदर्शयन् विश्वजगद्विभागान् ।
संस्तूयमानो नृवरेण तेन ज्ञानं परं चोपदिशन्नचारी: ॥८॥


:: उस नौका को खींचते हुए आप, मुनिमण्डल को विश्व के विभिन्न विभागों को दिखाने लगे। उन नर श्रेष्ठ मुनि सत्यव्रत के द्वारा आपकी स्तुति किये जाने पर, आप उनको परम ज्ञान, ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हुए विचरने लगे।

कल्पावधौ सप्तमुनीन् पुरोवत् प्रस्थाप्य सत्यव्रतभूमिपं तम् ।
वैवस्वताख्यं मनुमादधान: क्रोधाद् हयग्रीवमभिद्रुतोऽभू: ॥९॥


:: कल्प के अन्त में आपने सप्तर्षियों को पूर्ववत उनके स्थान पर स्थापित कर दिया और राजा सत्यव्रत को वैवस्वत नाम का मनु बना दिया। फिर आप क्रोध में हयग्रीव का पीछा करते हुए भागने लगे।

स्वतुङ्गशृङ्गक्षतवक्षसं तं निपात्य दैत्यं निगमान् गृहीत्वा ।
विरिञ्चये प्रीतहृदे ददान: प्रभञ्जनागारपते प्रपाया: ॥१०॥


:: आपने अपने ऊंचे सींग से उस दैत्य की छाती को चीर कर उसे मार डाला, और प्रसन्नचित्त ब्रह्मा को वेदों को ला कर दे दिया। हे गुरुवायुर के स्वामी! आप मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३१


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३१ 

प्रीत्या दैत्यस्तव तनुमह:प्रेक्षणात् सर्वथाऽपि
त्वामाराध्यन्नजित रचयन्नञ्जलिं सञ्जगाद ।
मत्त: किं ते समभिलषितं विप्रसूनो वद त्वं
वित्तं भक्तं भवनमवनीं वाऽपि सर्वं प्रदास्ये ॥१॥


:: अहो! आपका स्वरूप देख कर प्रसन्न हुए दैत्य ने सब प्रकार से (षोडशोपचार से) आपकी आराधना की। हे अजित! तब अञ्जलि बना कर उसने भलि प्रकार से कहा ’हे ब्राह्मण पुत्र! आपको मुझसे क्या अभिलाषा है ? धन भोजन भवन भूमि या ये सभी, कहें, मैं दूंगा।

तामीक्षणां बलिगिरमुपाकर्ण्य कारुण्यपूर्णोऽ-
प्यस्योत्सेकं शमयितुमना दैत्यवंशं प्रशंसन् ।
भूमिं पादत्रयपरिमितां प्रार्थयामासिथ त्वं
सर्वं देहीति तु निगदिते कस्य हास्यं न वा स्यात् ॥२॥


:: बलि की उस निर्भीक वाणी को सुन कर करुणा से परिपूर्ण होने पर भी आपने दैत्य वंश की प्रशंसा करते हुए तीन पगों की परिमिति की भूमि की याचना की। यदि यह भी कह देते कि सब दे दो, तब भी किसकी हंसी का पात्र नहीं होते?

विश्वेशं मां त्रिपदमिह किं याचसे बालिशस्त्वं
सर्वां भूमिं वृणु किममुनेत्यालपत्त्वां स दृप्यन् ।
यस्माद्दर्पात् त्रिपदपरिपूर्त्यक्षम: क्षेपवादान्
बन्धं चासावगमदतदर्होऽपि गाढोपशान्त्यै ॥३॥


:: ”मैं विश्व का ईश्वर हूं। मुझसे यहां तीन पगों की परिमिति की भूमि क्या मांगते हो, सारी पृथ्वी का वरण करो’ उसने इस प्रकार गर्व से कहा। इसी गर्व के कारण वह तीन पगों की भूमि देने में तो असमर्थ रहा ही, इसका पात्र न होने पर भी आक्षेपों और बन्धन का भी भागी हुआ। यह सब उसकी आत्यन्तिक उपशान्ति के लिये ही था।

पादत्रय्या यदि न मुदितो विष्टपैर्नापि तुष्ये-
दित्युक्तेऽस्मिन् वरद भवते दातुकामेऽथ तोयम् ।
दैत्याचार्यस्तव खलु परीक्षार्थिन: प्रेरणात्तं
मा मा देयं हरिरयमिति व्यक्तमेवाबभाषे ॥४॥


:: ”यदि पादत्रयी से सन्तोष नहीं है तो यह विश्व त्रयी से भी सन्तुष्ट नहीं होगा’, इस प्रकार जब उसने कहा और दान देने की इच्छा से जल हाथ में ले लिया, तब दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य ने बलि की परीक्षा लेने की इच्छा से, आपकी ही प्रेरणा से बलि को स्पष्ट रूप से कहा कि ’यह हरि है, मत दो मत दो।’

याचत्येवं यदि स भगवान् पूर्णकामोऽस्मि सोऽहं
दास्याम्येव स्थिरमिति वदन् काव्यशप्तोऽपि दैत्य: ।
विन्ध्यावल्या निजदयितया दत्तपाद्याय तुभ्यं
चित्रं चित्रं सकलमपि स प्रार्पयत्तोयपूर्वम् ॥५॥


:: बलि ने कहा कि ’ यदि स्वयं भगवान इस प्रकार याचना करते हैं तो मैं पूर्ण काम हो गया और मैं अवश्य ही दूंगा।’ इस पर शुक्राचार्य के द्वारा शपित हो जाने पर भी बलि ने अपनी पत्नी विन्ध्यावली के द्वारा पाद्य जल अर्पित करते हुए ही आपके लिये सर्वस्व समर्पित कर दिया। आश्चर्यजनक है यह!

निस्सन्देहं दितिकुलपतौ त्वय्यशेषार्पणं तद्-
व्यातन्वाने मुमुचु:-ऋषय: सामरा: पुष्पवर्षम् ।
दिव्यं रूपं तव च तदिदं पश्यतां विश्वभाजा-
मुच्चैरुच्चैरवृधदवधीकृत्य विश्वाण्डभाण्डम् ॥६॥


:: निस्संदेह रूप से, जब दैत्यराज ने आपको सर्वस्व समर्पित कर दिया, तब ऋषियों ने देवों के सहित आप पर पुष्प वृष्टि की। विश्व जनों को आपका जो दिव्य स्वरूप दिखाई दे रहा था वह, विश्व के अण्ड भाण्ड की सीमाओं को पार कर ऊंचा और ऊंचा बढने लगा।

त्वत्पादाग्रं निजपदगतं पुण्डरीकोद्भवोऽसौ
कुण्डीतोयैरसिचदपुनाद्यज्जलं विश्वलोकान् ।
हर्षोत्कर्षात् सुबहु ननृते खेचरैरुत्सवेऽस्मिन्
भेरीं निघ्नन् भुवनमचरज्जाम्बवान् भक्तिशाली ॥७॥


:: आपके विशाल स्वरूप के बढते बढते, जब आपके चरण सत्यलोक में पहुंचे, तब कमलजन्मा ब्रह्मा ने आपके चरणाग्र को अपने कमण्डलु के जल से धोया। उस जल से, गंगा के रूप में, विश्व के सभी लोक पवित्र हो गये । हर्षविभोर हो कर गगनचारी गन्धर्व विद्याधर आदि खूब नाचे और इस उत्सव में नगाडे बजाते हुए भक्तिमान जाम्बवान सारे भुवनों में घूमते रहे।

तावद्दैत्यास्त्वनुमतिमृते भर्तुरारब्धयुद्धा
देवोपेतैर्भवदनुचरैस्सङ्गता भङ्गमापन् ।
कालात्माऽयं वसति पुरतो यद्वशात् प्राग्जिता: स्म:
किं वो युद्धैरिति बलिगिरा तेऽथ पातालमापु: ॥८॥


:: हे भगवन! तब तक अपने स्वामी की आज्ञा के बिना असुरों ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया। उस समय आपके साथ आये भट्टों द्वारा वे असुर पराजित कर दिये गये। तब बलि ने उनसे कहा कि "कालस्वरूप साक्षात विष्णु सामने खडे हैं जिनकी कृपा से हम लोग पहले जीत चुके हैं। युद्ध करने से कोई लाभ नहीं है।" यह सुन कर असुर-गण पाताल में चले गये।

पाशैर्बद्धं पतगपतिना दैत्यमुच्चैरवादी-
स्तार्त्तीयीकं दिश मम पदं किं न विश्वेश्वरोऽसि ।
पादं मूर्ध्नि प्रणय भगवन्नित्यकम्पं वदन्तं
प्रह्लाद्स्तं स्वयमुपगतो मानयन्नस्तवीत्त्वाम् ॥९॥


:: गरुड ने बलि को पाशों से बांध दिया। तब आपने ऊंचे स्वर में बलि से कहा कि ’मेरे तीसरे पग के लिये स्थान दो। क्यों नहीं? तुम तो जगदीश्वर हो न?’ बलि ने अविचलित भाव से कहा कि ’भगवन तीसरा पग मेरे सिर पर रखिये’। तब स्वयं प्रह्लाद बलि के समीप आ कर उसकी प्रशंसा करते हुए आपकी स्तुति गाने लगे।

दर्पोच्छित्त्यै विहितमखिलं दैत्य सिद्धोऽसि पुण्यै-
र्लोकस्तेऽस्तु त्रिदिवविजयी वासवत्वं च पश्चात् ।
मत्सायुज्यं भज च पुनरित्यन्वगृह्णा बलिं तं
विप्रैस्सन्तानितमखवर: पाहि वातालयेश ॥१०॥


:: ’हे असुर तुम्हारे दर्प का उच्छेदन करने के लिये यह सब रचा गया था। तुम अपने पुण्य कर्मों से सिद्ध हो गये हो। अब तुम सुतल लोक मे राज्य करोगे जो स्वर्ग लोक से भी उत्तम है। तत्पश्चात तुम इन्द्रत्व प्राप्त करोगे और फिर मेरे सायुज्य का भोग करोगे’। इस प्रकार बलि पर अनुग्रह करने के बाद आपने विप्रों के द्वारा उस श्रेष्ठ विश्वजित यज्ञ को पूर्ण करवाया। हे वातालयेश! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

Saturday, February 2, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २८


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २८

गरलं तरलानलं पुरस्ता-ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥

:: सब के सामने सब से पहले तरल अग्नि के समान कालकूट विष समुद्र में से बाहर निकला। देवों के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न हो कर शंकर जी आपकी प्रसन्नता के लिये उसे पी गये।

विमथत्सु सुरासुरेषु जाता सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥

:: देवों और दानवों के द्वारा मन्थन करते हुए सुरभि, कामधेनु गाय प्रकट हुई, जिसको आपने ऋषियों को दे दिया। हे त्रिधामन! फिर अश्वरत्न उच्चैश्रवा और गजरत्न ऐरावत और अप्सरायें निकलीं, जिन्हें आपने देवों को दे दिया।

जगदीश भवत्परा तदानीं कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल: सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥

:: उसी समय आपसे उन्मुख सुशोभित लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। उन निर्मल कमला को देख कर सारे लोक अभिभूत हो गये और सभी उनको पाने के इच्छुक हो उठे।

त्वयि दत्तहृदे तदैव देव्यै त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै: ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥

:: उन देवी को, जो आपमें ही दत्तचित्त थीं, इन्द्र ने मणिपीठिका प्रदान की। सभी स्थानों से लाये हुए अभिषेक जलों से एवं वेद मन्त्रों से ऋषियों ने उनका अभिषेक किया।

अभिषेकजलानुपातिमुग्ध-त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार- प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥

:: अभिषेक जलों से संसिञ्चित होते हुए तथा आपके अनुराग पूर्ण कटाक्षों से लक्ष्मी देवी विषेश रूप से सुसज्जित हुईं। देवताओं आदि ने तब उन्हें मणिकुण्डल, पीताम्बर हार आदि से अलंकृत किया।

वरणस्रजमात्तभृङ्गनादां दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥

:: कुच रूपी कलशों के भार से मन्द गति वाली, पैरों में सुशोभित नूपुरों की झंकार वाली, किञ्चित लज्जा के भाव के साथ, भंवरों के गुञ्जार से व्याप्त वरण माल को उठाए हुए लक्ष्मी देवी आपके समीप आईं।

गिरिशद्रुहिणादिसर्वदेवान् गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥

लक्ष्मी देवी ने यह समझ कर कि शंकर ब्रह्मा आदि सभी देव गुणयुक्त होते हुए भी किसी न किसी दोष के लेश से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, सदैव ही सर्व रमणीय आपके गले में दिव्य वरण माला डाल दी।

उरसा तरसा ममानिथैनां भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री- परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥

आपने अनन्यभावा जगत जननी को शीघ्र ही वक्षस्थल से लगा कर सम्मान दिया। आपके वक्षस्थल पर सुशोभित हुई उनकी दृष्टि के वैभव से विश्व परिपुष्ट हो गया।

अतिमोहनविभ्रमा तदानीं मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना- मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥

तब अति मनोहर और विभ्रामक और निश्चित रूप से मदोन्मत्त करने वाली वारुणी निकली जो सभी तामसिक प्रवृत्तियों की अधिष्ठाता है। आपने अत्यन्त सम्मान के साथ उसको महा असुरों को दे दिया।

तरुणाम्बुदसुन्दरस्तदा त्वं ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या- मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥

तब आप ही तरुण मेघों के समान सुन्दर धन्वन्तरि के रूप में समुद्र में से प्रकट हुए। आपके दोनों हाथों में अमृत का कलश था। हे मारुतालयेश! मेरे सभी क्लेशों का हरण कीजिये।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

Sunday, January 27, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३०


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३०  

शक्रेण संयति हतोऽपि बलिर्महात्मा
शुक्रेण जीविततनु: क्रतुवर्धितोष्मा ।
विक्रान्तिमान् भयनिलीनसुरां त्रिलोकीं
चक्रे वशे स तव चक्रमुखादभीत: ॥१॥ 

:: इन्द्र के द्वारा महात्मा बलि के युद्ध में मारे जाने पर भी शुक्राचार्य ने उनका शरीर जीवित कर दिया। विश्वजित यज्ञ करने से बलि का बल वर्धित हो गया। भय से सभी देवगण छुप गये। आपके सुदर्शन चक्र के आक्रमण से निर्भय पराक्रमी बलि ने तीनों लोकों को वश में कर लिया।

पुत्रार्तिदर्शनवशाददितिर्विषण्णा
तं काश्यपं निजपतिं शरणं प्रपन्ना ।
त्वत्पूजनं तदुदितं हि पयोव्रताख्यं
सा द्वादशाहमचरत्त्वयि भक्तिपूर्णा ॥२॥ 

:: अपने पुत्रों के कष्ट देख कर विवश और कातर अदिति अपने पति कश्यप मुनि की शरण में गई। उनके द्वारा बताई हुई आपके पूजन की विधि पयोव्रत का अदिति ने आपकी भक्ति से परिपूर्ण हो कर बारह दिनों तक आचरण किया।

तस्यावधौ त्वयि निलीनमतेरमुष्या:
श्यामश्चतुर्भुजवपु: स्वयमाविरासी: ।
नम्रां च तामिह भवत्तनयो भवेयं
गोप्यं मदीक्षणमिति प्रलपन्नयासी: ॥३॥ 

:: पयोव्रत के आचरण की अवधि में अदिति की बुद्धि आपमें निलीन हो गई। अपने सम्मुख नतमस्तक शरणागत हुई उसके सामने आप अपने श्यामवर्ण और चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट हुए। "मैं आपका पुत्र होऊंगा। मेरा यह दर्शन गोपनीय है।" इस प्रकार कह कर आप अन्तर्धान हो गये।

त्वं काश्यपे तपसि सन्निदधत्तदानीं
प्राप्तोऽसि गर्भमदिते: प्रणुतो विधात्रा ।
प्रासूत च प्रकटवैष्णवदिव्यरूपं
सा द्वादशीश्रवणपुण्यदिने भवन्तं ॥४॥ 

:: उस समय कश्यप मुनि के वीर्य में प्रवेश कर के आप अदिति के गर्भ में प्रविष्ट हुए। ब्रह्मा ने आपकी स्तुति की। द्वादशी और श्रावण के शुभ दिन में अदिति ने विष्णु के समस्त लक्षणों से युक्त दिव्य रूप में आपको जन्म दिया।

पुण्याश्रमं तमभिवर्षति पुष्पवर्षै-
र्हर्षाकुले सुरगणे कृततूर्यघोषे ।
बध्वाऽञ्जलिं जय जयेति नुत: पितृभ्यां
त्वं तत्क्षणे पटुतमं वटुरूपमाधा: ॥५॥ 

:: हर्ष से विभोर देवगण उस पुण्याश्रम पर पुष्प वृष्टि करने लगे और दुन्दुभियों का नाद करने लगे। अञ्जलि बांध कर देवगण और आपके माता पिता भी ’जय हो जय हो’ इस प्रकार आपकी स्तुति करने लगे। तब उसी समय आप ने एक अत्यन्त पटु ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया।

तावत्प्रजापतिमुखैरुपनीय मौञ्जी-
दण्डाजिनाक्षवलयादिभिरर्च्यमान: ।
देदीप्यमानवपुरीश कृताग्निकार्य-
स्त्वं प्रास्थिथा बलिगृहं प्रकृताश्वमेधम् ॥६॥ 

:: हे ईश! तब कश्यप प्रजापति ने आपका उपनयन किया और मौञ्जी, दण्ड कृष्ण मृग चर्म, और अक्षमाला आदि से आपको सुसज्जित करके अर्चना की। आप अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न कर के बलि के घर की ओर प्रस्तुत हुए जहां अश्वमेध यज्ञ हो रहा था।

गात्रेण भाविमहिमोचितगौरवं प्रा-
ग्व्यावृण्वतेव धरणीं चलयन्नायासी: ।
छत्रं परोष्मतिरणार्थमिवादधानो
दण्डं च दानवजनेष्विव सन्निधातुम् ॥७॥ 

:: आप अपनी आगामी महिमा के अनुरूप गौरव को मानो पहले ही दर्शाते हुए, धरती को कंपायमान करते हुए चलते गये। शत्रुओं के क्रोध की गर्मी का रण में विरोध करने के लिये मानो आपने छत्र उठा रखा था। दानवों पर प्रहार करने के लिए ही मानो दण्ड भी धारण कर रखा था।

तां नर्मदोत्तरतटे हयमेधशाला-
मासेदुषि त्वयि रुचा तव रुद्धनेत्रै: ।
भास्वान् किमेष दहनो नु सनत्कुमारो
योगी नु कोऽयमिति शुक्रमुखैश्शशङ्के ॥८॥ 

:: नर्मदा के उत्तरी तट पर उस अश्वमेध यज्ञशाला में आपके पहुंचने पर, आपके तेज से शुक्र आदि प्रमुखों के नेत्रबन्द से हो गये। यह सूर्य है क्या, या अग्नि है, या सनत्कुमार योगी जन तो नहीं है, यह कौन है, इस प्रकार सब शङ्का सहित विचार करने लगे।

आनीतमाशु भृगुभिर्महसाऽभिभूतै-
स्त्वां रम्यरूपमसुर: पुलकावृताङ्ग: ।
भक्त्या समेत्य सुकृती परिणिज्य पादौ
तत्तोयमन्वधृत मूर्धनि तीर्थतीर्थम् ॥९॥ 

:: आपके तेज से अभिभूत शुक्राचार्य आदि आपको शीघ्र ही बलि असुर के पास ले गये। मनोहर रूप धारी आपको देख कर असुर बलि के अङ्ग पुलकित हो उठे। तब उस पुण्यात्मा ने आपके पास जा कर आपके चरणों को धोया और उस पवित्र से भी पवित्र जल को अपने सर पर रख लिया।

प्रह्लादवंशजतया क्रतुभिर्द्विजेषु
विश्वासतो नु तदिदं दितिजोऽपि लेभे ।
यत्ते पदाम्बु गिरिशस्य शिरोभिलाल्यं
स त्वं विभो गुरुपुरालय पालयेथा: ॥१०॥ 

:: बलि ने प्रह्लाद का वंशज होने के कारण, या अपने यज्ञानुष्ठानों के बल के कारण, या ब्राह्मणों की महिमा में विश्वास के कारण दिति पुत्र असुर होने पर भी आपकावह पादोदक प्राप्त कर लिया, जो शंकर के मस्तक पर धारण करने योग्य है। वैसे आप हे विभो! हे गुरुपुर के निवासी! आप मेरा पालन करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २९






श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २९

उद्गच्छतस्तव करादमृतं हरत्सु
दैत्येषु तानशरणाननुनीय देवान् ।
सद्यस्तिरोदधिथ देव भवत्प्रभावा-
दुद्यत्स्वयूथ्यकलहा दितिजा बभूवु: ॥१॥


:: जैसे ही आप कलश ले कर उद्धृत हो रहे थे, दैत्यों ने आपके हाथों से अमृत का हरण करने की चेष्टा की। उन शरणहीन देवों को सान्त्वना देते हुए आप अदृश्य हो गये। आपके ही प्रभाव से तब असुरों में आपस में विवाद आरम्भ हो गया।

श्यामां रुचाऽपि वयसाऽपि तनुं तदानीं
प्राप्तोऽसि तुङ्गकुचमण्डलभंगुरां त्वम् ।
पीयूषकुम्भकलहं परिमुच्य सर्वे
तृष्णाकुला: प्रतिययुस्त्वदुरोजकुम्भे ॥२॥


:: तब आपने सुन्दर कान्ति और युवावस्था वाले शरीर को धारण किया। उन्नत स्तनों के भार से किञ्चित झुके हुए आपके उस रूप को देख कर, तृष्णा से आकुल-व्याकुल हुए सभी, अमृत कलश के कलह को त्याग कर आपके स्तन कलशों के पीछे भागे।

का त्वं मृगाक्षि विभजस्व सुधामिमामि-
त्यारूढरागविवशानभियाचतोऽमून् ।
विश्वस्यते मयि कथं कुलटाऽस्मि दैत्या
इत्यालपन्नपि सुविश्वसितानतानी: ॥३॥


::’हे मृगनयनी तुम कौन हो? यह अमृत हम लोगों में बांट कर दो’, अत्यन्त मोह के वशिभूत हुए उन लोगों ने इस प्रकार याचना की। ’हे असुर! मैं कुलटा हूं, मुझ पर कैसे विश्वास करते हो’, इस प्रकार कहते हुए भी आपने उन लोगों का विश्वास जीत लिया।

मोदात् सुधाकलशमेषु ददत्सु सा त्वं
दुश्चेष्टितं मम सहध्वमिति ब्रुवाणा ।
पङ्क्तिप्रभेदविनिवेशितदेवदैत्या
लीलाविलासगतिभि: समदा: सुधां ताम् ॥४॥


:: आपको हर्ष पूर्वक अमृत-कलश देते हुए उन लोगों से आपने कहा ’मेरी दुष्चेष्टाओं को आप लोगों को सहन करना पडेगा।’ इस प्रकार कहते हुए आपने देवों और दैत्यों को भिन्न भिन्न पङ्क्तियों मे विभाजित कर दिया। फिर लीला सहित विलास पूर्ण गति से जा कर उनसे अमृत कलश ले लिया।

अस्मास्वियं प्रणयिणीत्यसुरेषु तेषु
जोषं स्थितेष्वथ समाप्य सुधां सुरेषु ।
त्वं भक्तलोकवशगो निजरूपमेत्य
स्वर्भानुमर्धपरिपीतसुधं व्यलावी: ॥५॥


::’यह हम लोगों में अनुरक्त है’, ऐसा सोच कर जब असुर शान्ति से बैठे थे, आपने अमृत सारा देवों में बांट कर समाप्त कर दिया और अपने असली स्वरूप में आ गये। अपने भक्त जनों के वशीभूत आपने आधा अमृत पीये हुए असुर राहु का शिर:च्छेद कर दिया।

त्वत्त: सुधाहरणयोग्यफलं परेषु
दत्वा गते त्वयि सुरै: खलु ते व्यगृह्णन् ।
घोरेऽथ मूर्छति रणे बलिदैत्यमाया-
व्यामोहिते सुरगणे त्वमिहाविरासी: ॥६॥


:: आपके हाथों से अमृत अपहरण का उचित फल असुरों को दे कर आपके चले जाने के बाद, दैत्यों ने देवों के साथ फिर युद्ध आरम्भ कर दिया। जब देव गण असुर बालि की माया से विमोहित हो कर मूर्छित हो गये तब आप फिर से युद्ध के बीच में प्रकट हो गये।

त्वं कालनेमिमथ मालिमुखाञ्जघन्थ
शक्रो जघान बलिजम्भवलान् सपाकान् ।
शुष्कार्द्रदुष्करवधे नमुचौ च लूने
फेनेन नारदगिरा न्यरुणो रणं त्वं ॥७॥


:: आपने कालनेमि, माली, सुमाली और माल्यवान आदि का संहार किया। इन्द्र ने बलि, जम्भ, बल और पाक आदि को मार डाला। ऐसे नमुचि को जिसका सूखे या गीले पदार्थ से वध दुष्कर था, आपने समुद्र के फेन से मार गिराया। फिर नारद के कहने पर आपने युद्ध रोक दिया।

योषावपुर्दनुजमोहनमाहितं ते
श्रुत्वा विलोकनकुतूहलवान् महेश: ।
भूतैस्समं गिरिजया च गत: पदं ते
स्तुत्वाऽब्रवीदभिमतं त्वमथो तिरोधा: ॥८॥


:: दैत्यों को मोहित करने के लिये आपने जो युवती स्त्री का वेश धारण किया था, उसके बारे में सुन कर उस रूप को देखने के लिये शंकर उत्सुक हो गये। वे पार्वती और भूतों के साथ आपके वास स्थान को गये और स्तुति कर के अपने अभिप्राय को व्यक्त किया। तब आप अन्तर्धान हो गये।

आरामसीमनि च कन्दुकघातलीला-
लोलायमाननयनां कमनीं मनोज्ञाम् ।
त्वामेष वीक्ष्य विगलद्वसनां मनोभू-
वेगादनङ्गरिपुरङ्ग समालिलिङ्ग ॥९॥


:: हे अङ्ग! उपवन के प्रान्त भाग में गेंन्द को मारने की लीला करती हुई चञ्चल नेत्रों वाली सुन्दर और मनमोहिनी रूप वाली जिसके वस्त्र सरक रहे थे, ऐसी युवती रूप में आपको देख कर, मनोजरिपु शंकर ने मनोज के अतिरेक से आपका आलिङ्गन कर लिया।

भूयोऽपि विद्रुतवतीमुपधाव्य देवो
वीर्यप्रमोक्षविकसत्परमार्थबोध: ।
त्वन्मानितस्तव महत्त्वमुवाच देव्यै
तत्तादृशस्त्वमव वातनिकेतनाथ ॥१०॥


:: फिर भी भागती हुई उस रमणी का पीछा करते हुए शंकर को, वीर्य के स्खलित हो जाने से, परमार्थ के ज्ञान का प्रबोध हो गया। आपसे सम्मानित हो कर तब शंकर ने आपकी महिमा पार्वती को बताई। ऐसे इस प्रकार के हे वातनिकेतनाथ! आप प्रसन्न हों।

ॐ नमो नारायणाय ..


श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २७


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २७

 दर्वासास्सुरवनिताप्तदिव्यमाल्यं
शक्राय स्वयमुपदाय तत्र भूय: ।
नागेन्द्रप्रतिमृदिते शशाप शक्रं
का क्षान्तिस्त्वदितरदेवतांशजानाम् ॥१॥

:: देवाङनाओं से प्राप्त दिव्य माला को दुर्वासा ऋषि ने एकबार स्वयं इन्द्र को प्रदान की। ऐरावत हाथी ने उसे कुचल दिया। अवहेलना से पीडित दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दे दिया। आपसे इतर देवताओं के अंशजों में क्षमा भावना कहां है?

शापेन प्रथितजरेऽथ निर्जरेन्द्रे
देवेष्वप्यसुरजितेषु निष्प्रभेषु ।
शर्वाद्या: कमलजमेत्य सर्वदेवा
निर्वाणप्रभव समं भवन्तमापु: ॥२॥

:: हे निर्वाण दाता! शाप के प्रभाव से वृद्धावस्था रहित इन्द्र भी बुढापे से आक्रान्त हो गये, और देवगण भी दानवों के द्वारा पराजित हो कर निस्तेज हो गये। तब शंकर आदि सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और उनके साथ आपके पास पहुंचे।

ब्रह्माद्यै: स्तुतमहिमा चिरं तदानीं
प्रादुष्षन् वरद पुर: परेण धाम्ना ।
हे देवा दितिजकुलैर्विधाय सन्धिं
पीयूषं परिमथतेति पर्यशास्त्वम् ॥३॥

:: हे वरदायी! उस समय ब्रह्मा आदि ने बहुत समय तक आपकी महिमा का स्तवन किया। हे देव! आप अपने अपूर्व तेजस्वी स्वरूप से उनके सामने प्रकट हो गये और उन्हे असुरों के साथ संधि करके, अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन का परामर्श दिया।

सन्धानं कृतवति दानवै: सुरौघे
मन्थानं नयति मदेन मन्दराद्रिम् ।
भ्रष्टेऽस्मिन् बदरमिवोद्वहन् खगेन्द्रे
सद्यस्त्वं विनिहितवान् पय:पयोधौ ॥४॥

:: देवताओं ने असुरों के साथ संधि कर ली और मन्थन करने के लिये मथनी स्वरूप मन्दार पर्वत को अभिमान के साथ उठा कर ले चले। उसके गिर जाने पर आपने उसे बेर के समान उठा कर गरुड पर रख लिया और शीघ्र ही उसे समुद्र जल में डाल दिया।

आधाय द्रुतमथ वासुकिं वरत्रां
पाथोधौ विनिहितसर्वबीजजाले ।
प्रारब्धे मथनविधौ सुरासुरैस्तै-
र्व्याजात्त्वं भुजगमुखेऽकरोस्सुरारीन् ॥५॥

:: वासुकि सर्प रूपी नेती को तब शीघ्र ही क्षीर सागर में डाल दिया गया जिसमें सभी बीज समूह विद्यमान थे। और उन देवताओं और दानवों ने मन्थन की क्रिया आरम्भ कर दी। आपने चतुरता से असुरों को नाग के मुख की ओर कर दिया।

क्षुब्धाद्रौ क्षुभितजलोदरे तदानीं
दुग्धाब्धौ गुरुतरभारतो निमग्ने ।
देवेषु व्यथिततमेषु तत्प्रियैषी
प्राणैषी: कमठतनुं कठोरपृष्ठाम् ॥६॥

:: मथे जाते हुए पर्वत से जल के भीतरी भाग क्षुब्ध हो उठे, और तब अत्यधिक भार के कारण वह क्षीर सागर में डूब गया। इससे देवगण अतिशय चिन्ता में पड गये। उनके हितैषी आपने तब अत्यन्त कठोर पीठ वाले कच्छप का शरीर धारण किया।

वज्रातिस्थिरतरकर्परेण विष्णो
विस्तारात्परिगतलक्षयोजनेन ।
अम्भोधे: कुहरगतेन वर्ष्मणा त्वं
निर्मग्नं क्षितिधरनाथमुन्निनेथ ॥७॥

:: हे विष्णो! वज्र से भी कठोर पीठ वाले और विस्तार में लाख योजन की सीमाओं का उल्लङ्घन करने वाले उस शरीर से आपने समुद्र के अन्तस्थल में जा कर डूबे हुए पर्वतराज को ऊपर उठा लिया।

उन्मग्ने झटिति तदा धराधरेन्द्रे
निर्मेथुर्दृढमिह सम्मदेन सर्वे ।
आविश्य द्वितयगणेऽपि सर्पराजे
वैवश्यं परिशमयन्नवीवृधस्तान् ॥८॥

:: मन्दराचल के ऊपर आ जाने पर सब ने अति उत्साह पूर्वक जोर से मन्थन किया। आपने दोनों पक्षों और सर्पराज वासुकि में भी प्रवेश कर के सब की क्लान्ति को मिटाते हुए उनके बल को पुष्ट किया।

उद्दामभ्रमणजवोन्नमद्गिरीन्द्र-
न्यस्तैकस्थिरतरहस्तपङ्कजं त्वाम् ।
अभ्रान्ते विधिगिरिशादय: प्रमोदा-
दुद्भ्रान्ता नुनुवुरुपात्तपुष्पवर्षा: ॥९॥

:: अत्यन्त वेग पूर्वक घूमते हुए ऊपर उठ आये गिरीन्द्र पर आपने एक स्थिर हस्त-कमल स्थित कर रखा था। मेघमार्ग में ब्रह्मा शंकर आदि हर्ष से अभिभूत हो गये और आपको नमन करके आपका स्तवन करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे।

दैत्यौघे भुजगमुखानिलेन तप्ते
तेनैव त्रिदशकुलेऽपि किञ्चिदार्ते ।
कारुण्यात्तव किल देव वारिवाहा:
प्रावर्षन्नमरगणान्न दैत्यसङ्घान् ॥१०॥

:: वासुकि सर्प के मुख से निकलती हुई अग्नि से दैत्यगण संतप्त हो उठे। उसी अग्नि से देवों को भी कुछ पीडा हुई। तब आपकी करुणा से प्रेरित हो कर मेघों ने देवों पर वर्षा की, दैत्यों पर नहीं।

उद्भ्राम्यद्बहुतिमिनक्रचक्रवाले
तत्राब्धौ चिरमथितेऽपि निर्विकारे ।
एकस्त्वं करयुगकृष्टसर्पराज:
संराजन् पवनपुरेश पाहि रोगात् ॥११॥

:: वह सागर बहुत समय तक मथित होने पर उसमें स्थित बहुत से तिमि नामक ग्राह समूह और चक्रवाल आदि तो उद्वेलित हुए किन्तु सागर में कोई विकार नहीं आया। तब एकमात्र आप अपने दोनों हस्त-कमलों से सर्पराज को खींचते हुए देदीप्यमान हुए। हे पवनपुरेश! रोगों से मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय नमः ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २६




श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २६


इन्द्रद्युम्न: पाण्ड्यखण्डाधिराज-
स्त्वद्भक्तात्मा चन्दनाद्रौ कदाचित् ।
त्वत् सेवायां मग्नधीरालुलोके
नैवागस्त्यं प्राप्तमातिथ्यकामम् ॥१॥

:: पाण्ड्य देश के अधिराज आपके परम भक्त थे। एक समय वे चन्दन गिरि पर आपके ध्यान में इतने मग्न थे कि आतिथ्य पाने के इच्छुक मुनि अगस्त्य को आते हुए भी नहीं देख पाए।


कुम्भोद्भूति: संभृतक्रोधभार:
स्तब्धात्मा त्वं हस्तिभूयं भजेति ।
शप्त्वाऽथैनं प्रत्यगात् सोऽपि लेभे
हस्तीन्द्रत्वं त्वत्स्मृतिव्यक्तिधन्यम् ॥२॥

:: क्रोध से भरे हुए, अगस्त्य मुनि ’जड बुद्धि, तुम हाथी की योनि को प्राप्त हो,’ इस प्रकार उसको शाप दे कर लौट गये। इन्द्रद्युम्न भी गजेन्द्रभाव को प्राप्त हुए, किन्तु आपकी स्मृति बनी रहने से वे धन्य हुए।


दग्धाम्भोधेर्मध्यभाजि त्रिकूटे
क्रीडञ्छैले यूथपोऽयं वशाभि: ।
सर्वान् जन्तूनत्यवर्तिष्ट शक्त्या
त्वद्भक्तानां कुत्र नोत्कर्षलाभ: ॥३॥

:: वह यूथपति गजराज, क्षीरसागर के मध्य स्थित त्रिकूट पर्वत पर हथिनियों के संग क्रीडा कर रहा था। वह शक्ति में समस्त जन्तुऒं में उत्कृष्ट था। आपके भक्त कहां कहां महानता लाभ नहीं करते।


स्वेन स्थेम्ना दिव्यदेशत्वशक्त्या
सोऽयं खेदानप्रजानन् कदाचित् ।
शैलप्रान्ते घर्मतान्त: सरस्यां
यूथैस्सार्धं त्वत्प्रणुन्नोऽभिरेमे ॥४॥

:: स्वयं के ओज से और उस दिव्य प्रदेश की शक्ति से उस गजराज ने कभी कष्टों का अनुभव नहीं किया। एक बार,आपकी प्रेरणा से, पर्वत प्रान्त में , ग्रीष्म से संतप्त हो कर वह अपने यूथ के संग सरोवर में विहार कर रहा था।


हूहूस्तावद्देवलस्यापि शापात्
ग्राहीभूतस्तज्जले बर्तमान: ।
जग्राहैनं हस्तिनं पाददेशे
शान्त्यर्थं हि श्रान्तिदोऽसि स्वकानाम् ॥५॥

:: तब, उस सरोवर के जल मैं हूहू नाम का गन्धर्व देवल ऋषि के श्राप से ग्राह बन कर वर्तमान था। उसने गजराज के पांव को पकड लिया। अपने भक्तों को अन्तत: शान्ति देने के लिये ही आप उन्हें कष्ट देते हैं।


त्वत्सेवाया वैभवात् दुर्निरोधं
युध्यन्तं तं वत्सराणां सहस्रम् ।
प्राप्ते काले त्वत्पदैकाग्र्यसिध्यै
नक्राक्रान्तं हस्तिवर्यं व्यधास्त्वम् ॥६॥

:: आपकी सेवा के वैभव से गजराज ग्राह से हजारों वर्षो तक युद्ध करता रहा। समय आने पर, अपने चरणों मे एकाग्रता की सिद्धि करवाने के लिये आपने गजराज को ग्राह से आक्रान्त करवाने की घटना रची।


आर्तिव्यक्तप्राक्तनज्ञानभक्ति:
शुण्डोत्क्षिप्तै: पुण्डरीकै: समर्चन् ।
पूर्वाभ्यस्तं निर्विशेषात्मनिष्ठं
स्तोत्रं श्रेष्ठं सोऽन्वगादीत् परात्मन् ॥७॥

:: ग्राह से युद्ध के कष्ट से उभरे हुए, पूर्व जन्म के ज्ञान और भक्ति से प्रेरित हो कर उस गजराज ने अपनी सूंड से कमलों को तोड कर आपकी अर्चना की। हे परमात्मन! फिर वह जन्मान्तर मे अभ्यास किये हुए श्रेष्ठ स्तोत्र का पाठ करने लगा।


श्रुत्वा स्तोत्रं निर्गुणस्थं समस्तं
ब्रह्मेशाद्यैर्नाहमित्यप्रयाते ।
सर्वात्मा त्वं भूरिकारुण्यवेगात्
तार्क्ष्यारूढ: प्रेक्षितोऽभू: पुरस्तात् ॥८॥

:: पूर्ण रूप से निर्गुणविषयक उस स्तोत्र को सुन कर, ब्रह्मा शिव आदि यह जान कर कि वह उनके निमित्त नहीं है, नहीं गये। सर्वव्यापक सर्वात्म-स्वरूप आप अतिशय करुणा के वेग से तुरन्त गरुड पर आरूढ हो कर गजराज के समक्ष प्रकट हो गये।


हस्तीन्द्रं तं हस्तपद्मेन धृत्वा
चक्रेण त्वं नक्रवर्यं व्यदारी: ।
गन्धर्वेऽस्मिन् मुक्तशापे स हस्ती
त्वत्सारूप्यं प्राप्य देदीप्यते स्म ॥९॥

:: आपने अपने कर कमल से गजराज को पकड लिया और चक्र के द्वारा ग्राह श्रेष्ठ को चीर डाला। उसमें स्थित गन्धर्व शाप से मुक्त हो गया। हाथी आपका सारूप्य पा कर दीप्तिमय हो उठा।


एतद्वृत्तं त्वां च मां च प्रगे यो
गायेत्सोऽयं भूयसे श्रेयसे स्यात् ।
इत्युक्त्वैनं तेन सार्धं गतस्त्वं
धिष्ण्यं विष्णो पाहि वातालयेश ॥१०॥

:: ’जो पुरुष प्रात:काल इस घटना का और मेरा और तुम्हारा गान करेगा, वह पुरुष महा कल्याण (मुक्ति) को प्राप्त करेगा’, ऐसा कह कर हे वातालयेश! आप उसको साथ ले कर वैकुण्ठ को चले गये। हे विष्णु! मेरी भी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २५



श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २५

स्तंभे घट्टयतो हिरण्यकशिपो: कर्णौ समाचूर्णय-
न्नाघूर्णज्जगदण्डकुण्डकुहरो घोरस्तवाभूद्रव: ।
श्रुत्वा यं किल दैत्यराजहृदये पूर्वं कदाप्यश्रुतं कम्प: 
कश्चन संपपात चलितोऽप्यम्भोजभूर्विष्टरात् ॥१॥

:: हिरण्यकशिपु के स्तम्भ पर प्रहार करते ही उसमें से आपका घोर गर्जन भरा ऐसा शब्द हुआ कि उसके कान फट गये और ब्रह्माण्ड के भीतर के समस्त चराचर चक्कर खाने लगे। दैत्यराज ने ऐसा भीषण गर्जन पहले कभी नही सुना था। इसे सुन कर उसके हृदय में अवर्णनीय प्रकम्प जाग उठा। सत्यलोक में कमल जन्मा ब्रह्मा भी अपने आसन से विचलित हो गये।

दैत्ये दिक्षु विसृष्टचक्षुषि महासंरम्भिणि स्तम्भत: 
सम्भूतं न मृगात्मकं न मनुजाकारं वपुस्ते विभो ।
किं किं भीषणमेतदद्भुतमिति व्युद्भ्रान्तचित्तेऽसुरे 
विस्फूर्ज्जद्धवलोग्ररोमविकसद्वर्ष्मा समाजृम्भथा: ॥२॥

:: महान कोलाहल के बीच, जब चकित और विम्भ्रान्त हो कर दैत्य चारों ओर दृष्टि डालने लगा तब, स्तम्भ में से आपका स्वरूप न तो पशु रूप में, न ही मनुष्य रूप में, प्रकट हो गया। अत्यन्त विचलित बुद्धि वाला असुर 'यह भयंकर और अद्भुत क्या है, क्या है', इस प्रकार चीत्कार कर उठा। विस्फुरित होते हुए श्वेत उग्र रोम वाले तथा उज्ज्वल प्रकाश वाले आप नृसिंह रूप में प्रकट हो कर, विशाल आकृति में विकसित होने लगे।

तप्तस्वर्णसवर्णघूर्णदतिरूक्षाक्षं सटाकेसर-
प्रोत्कम्पप्रनिकुम्बितांबरमहो जीयात्तवेदं वपु: ।
व्यात्तव्याप्तमहादरीसखमुखं खड्गोग्रवल्गन्महा- 
जिह्वानिर्गमदृश्यमानसुमहादंष्ट्रायुगोड्डामरम् ॥३॥

:: अहो! जय हो! आपके उस स्वरूप की जो तप्त स्वर्ण के समान पीला है, और घूमते हुए भयंकर नेत्रों वाला है। गर्दन के बाल कांपते हुए ऊपर की ओर उठते हुए आकाश मण्डल को आच्छादित कर रहे हैं, बडी चौडी और गहरी गुफा के समान मुख है। खड्ग के समान लपलपाती हुई बडी जिह्वा दृष्यमान दो विशाल दांतों के बीच से लटकती हुई अत्यधिक भयंकर लग रही है।

उत्सर्पद्वलिभङ्गभीषणहनु ह्रस्वस्थवीयस्तर- 
ग्रीवं पीवरदोश्शतोद्गतनखक्रूरांशुदूरोल्बणम् ।
व्योमोल्लङ्घि घनाघनोपमघनप्रध्वाननिर्धावित- 
स्पर्धालुप्रकरं नमामि भवतस्तन्नारसिंहं वपु: ॥४॥

:: आपके उस अद्वीतीय नृसिंह स्वरूप को मैं नमन करता हूं, जिसकी उपर उठी हुई त्वचा के सलोंहटो से ठुड्डी और भी भयंकर लग रही थी, जिसकी गर्दन मोटी और पुष्ट थी, जिसके सैंकडों मोटे हाथों के नखों से निकलती हुई किरणों से हाथ और भी भयानक लग रहे थे, और जिसका आकाश का उल्लङ्घन करते हुए घने बादलों के गर्जन के समान घोर गर्जन जो शत्रु समूहों को प्रताडित करने में सक्षम था।

नूनं विष्णुरयं निहन्म्यमुमिति भ्राम्यद्गदाभीषणं
दैत्येन्द्रं समुपाद्रवन्तमधृथा दोर्भ्यां पृथुभ्याममुम् ।
वीरो निर्गलितोऽथ खड्गफलकौ गृह्णन्विचित्रश्रमान् 
व्यावृण्वन् पुनरापपात भुवनग्रासोद्यतं त्वामहो ॥५॥

:: ”यह निश्चय ही विष्णु है, इसे मारूंगा’ इस प्रकार निश्चय कर के आपकी ओर भागते हुए उस दैत्यराज हिरण्यकशिपु को आपने दो बलिष्ठ भुजाओं से पकड लिया। अहो! फिर वह वीर आपकी पकड से निकल कर तलवार और ढाल ले कर विचित्र करतब करता हुआ, विश्व को ग्रसित करने को उद्यत आप के ऊपर टूट पडा।

भ्राम्यन्तं दितिजाधमं पुनरपि प्रोद्गृह्य दोर्भ्यां जवात्
द्वारेऽथोरुयुगे निपात्य नखरान् व्युत्खाय वक्षोभुवि । 
निर्भिन्दन्नधिगर्भनिर्भरगलद्रक्ताम्बु बद्धोत्सवं 
पायं पायमुदैरयो बहु जगत्संहारिसिंहारवान् ॥६॥

:: घूमते हुए उस दैत्य अधम को आपने दोनों हाथों से स्फूर्ति से पकड लिया और शीघ्र ही उसे द्वार के बीच में ले जा कर अपनी दोनों जङ्घाओं के ऊपर डाल लिया। उसके वक्षस्थल में अपने नखों को गडा कर आपने उसे चीर डाला और उसके भीतर से निकलते हुए रक्त रूपी जल को उल्लास पूर्वक पी पी कर, अनेक बार जगत संहारकारी सिंहनाद किया।

त्यक्त्वा तं हतमाशु रक्तलहरीसिक्तोन्नमद्वर्ष्मणि
प्रत्युत्पत्य समस्तदैत्यपटलीं चाखाद्यमाने त्वयि ।
भ्राम्यद्भूमि विकम्पिताम्बुधिकुलं व्यालोलशैलोत्करं 
प्रोत्सर्पत्खचरं चराचरमहो दु:स्थामवस्थां दधौ ॥७॥

:: हिरण्यकशिपु, जो आपके द्वारा मारा गया था, उसको छोड कर, रक्त की फुहारों से सींचे गये विशाल शरीर वाले आप वेग से समस्त दैत्य समूह को खाने लगे। पृथ्वी घूमने लगी, सागर समूह विकम्पित हो गया, पर्वत मण्डल डोलने लगे, आकाश गामी ग्रह नक्षत्र और चराचर विचलित हो उठे। अहो! कैसी दुर्व्यवस्थित दशा छा गई!

तावन्मांसवपाकरालवपुषं घोरान्त्रमालाधरं
त्वां मध्येसभमिद्धकोपमुषितं दुर्वारगुर्वारवम् ।
अभ्येतुं न शशाक कोपि भुवने दूरे स्थिता भीरव:
सर्वे शर्वविरिञ्चवासवमुखा: प्रत्येकमस्तोषत ॥८॥

:: तत्पश्चात, मांस मज्जा से सने हुए वीभत्स शरीर वाले, भयानक आंतों को गल-हार की तरह धारण किये हुए, महान क्रोध में भरे हुए तथा मध्य सभा में बैठे हुए निरन्तर सिंहनाद-सम गर्जन करते हुए आपके निकट संसार में कोई भी नहीं जा सका। दूर खडे हुए और डरे हुए शंकर, ब्रह्मा, इन्द्र आदि प्रत्येक प्रमुख ने आपको शान्त करने के लिए आपकी स्तुति की।

भूयोऽप्यक्षतरोषधाम्नि भवति ब्रह्माज्ञया बालके
प्रह्लादे पदयोर्नमत्यपभये कारुण्यभाराकुल: ।
शान्तस्त्वं करमस्य मूर्ध्नि समधा: स्तोत्रैरथोद्गायत-
स्तस्याकामधियोऽपि तेनिथ वरं लोकाय चानुग्रहम् ॥९॥

:: इस पर भी, जब आपका क्रोध लेशमात्र भी कम नहीं हुआ, तब ब्रह्मा की आज्ञा से निर्भय बालक प्रह्लाद ने आपके चरणों में नमन किया। करुणा के वेग से अत्यन्त विचलित हुए शान्त हो कर आपने उसके सर पर अपना हाथ रख दिया। स्तोत्रों का गान करते हुए निष्काम हृदय प्रह्लाद को आपने लोक कल्याण के लिए वर प्रदान किया।

एवं नाटितरौद्रचेष्टित विभो श्रीतापनीयाभिध- 
श्रुत्यन्तस्फ़ुटगीतसर्वमहिमन्नत्यन्तशुद्धाकृते ।
तत्तादृङ्निखिलोत्तरं पुनरहो कस्त्वां परो लङ्घयेत्
प्रह्लादप्रिय हे मरुत्पुरपते सर्वामयात्पाहि माम् ॥१०॥

:: इस प्रकार नाट्यस्वरूप आपने रौद्र रस का अभिनय किया। श्री तापनीय नामक उपनिषद में वर्णित स्तुतियों में आपकी सभी महिमाओं का गान किया गया है।आप अत्यन्त शुद्ध आकृति वाले हैं आपकी महिमा का उल्लङ्घन कौन कर सकता है? हे प्रह्लादप्रिय! हे मरुत्पुरपते! मुझे सभी तापों से मुक्त कीजिये।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २४


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २४

हिरण्याक्षे पोत्रिप्रवरवपुषा देव भवता
हते शोकक्रोधग्लपितधृतिरेतस्य सहज: ।
हिरण्यप्रारम्भ: कशिपुरमरारातिसदसि 
प्रतिज्ञमातेने तव किल वधार्थं मधुरिपो ॥१॥

:: अति उत्तम वराह स्वरूप धारण कर के जब आपने हिरण्याक्ष को मार डाला तब उसका भाई हिरण्यकशिपु: शोक और क्रोध से विह्वल हो कर मति खो बैठा। हे मधुरिपु! तब राक्षसों की सभा में, उसने आपको मार डालने की प्रतिज्ञा की।

विधातारं घोरं स खलु तपसित्वा नचिरत:
पुर: साक्षात्कुर्वन् सुरनरमृगाद्यैरनिधनम् ।
वरं लब्ध्वा दृप्तो जगदिह भवन्नायकमिदं 
रिक्षुन्दन्निन्द्रादहरत दिवं त्वामगणयन् ॥२॥

:: उसने निश्चय ही घोर तपस्या कर के शीघ्र ही ब्रह्मा जी को अपने सामने उपस्थित कर लिया। देव मनुष्य अथवा पशु किसी के भी द्वारा न मारे जाने का वर प्राप्त कर के वह गर्वित हो उठा। इस जगत के नियन्ता आप की अवहेलना करते हुए उसने इस जगत को पीडित कर दिया और इन्द्र से उसका देवलोक छीन लिया।

निहन्तुं त्वां भूयस्तव पदमवाप्तस्य च रिपो-
र्बहिर्दृष्टेरन्तर्दधिथ हृदये सूक्ष्मवपुषा । 
नदन्नुच्चैस्तत्राप्यखिलभुवनान्ते च मृगयन् 
भिया यातं मत्वा स खलु जितकाशी निववृते ॥३॥

:: आपको मारने के लिये वह आपके निवास स्थान वैकुण्ठ को पहुंच गया। आप अपने शत्रु के देह चक्षुओं से ओझल हो कर सूक्ष्म रूप से उसके हृदय में प्रवेश कर गये। तीव्र चीत्कार के साथ वह आपको भुवनों के अन्त तक खोजता रहा। फिर आपको डर से भागा हुआ और स्वयं को विजयी मान कर वह लौट गया।

ततोऽस्य प्रह्लाद: समजनि सुतो गर्भवसतौ 
मुनेर्वीणापाणेरधिगतभवद्भक्ति महिमा ।
स वै जात्या दैत्य: शिशुरपि समेत्य त्वयि रतिं 
गतस्त्वद्भक्तानां वरद परमोदाहरणताम् ॥४॥

:: तदनन्तर, उसके प्रह्लाद नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने गर्भ में रहते हुए ही वीणा पाणि नारद जी से आपकी भक्ति की महिमा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। हे वरद! दैत्य वंश का होते हुए भी, बाल काल में ही आपका प्रेमी हो कर, वह आपके भक्तों में परम भक्त का उदाहरण बन गया।

सुरारीणां हास्यं तव चरणदास्यं निजसुते
स दृष्ट्वा दुष्टात्मा गुरुभिरशिशिक्षच्चिरममुम् ।
गुरुप्रोक्तं चासाविदमिदमभद्राय दृढमि- 
त्यपाकुर्वन् सर्वं तव चरणभक्त्यैव ववृधे ॥ ५ ॥

:: असुरों के लिये हास्यास्पद आपके चरणो की दासता को अपने पुत्र में देख कर, उस दुष्टात्मा हिरण्यकशिपु ने गुरुओं के द्वारा प्रह्लाद को बहुत समय तक शिक्षा दिलवाई। गुरुओं के द्वारा दिया गया सारा ज्ञान अकल्याण्कारी है, ऐसा निश्चय करके उन सब का त्याग कर के वह आपके चरणों की भक्ति के साथ बढता रहा।

अधीतेषु श्रेष्ठं किमिति परिपृष्टेऽथ तनये
भवद्भक्तिं वर्यामभिगदति पर्याकुलधृति: ।
गुरुभ्यो रोषित्वा सहजमतिरस्येत्यभिविदन् 
वधोपायानस्मिन् व्यतनुत भवत्पादशरणे ॥६॥

:: 'पढे हुए पाठ में श्रेष्ठ क्या है' ऐसा पूछे जाने पर प्रह्लाद ने आपकी भक्ति को ही सर्वोत्तम बताया। इससे विचलित बुद्धि हिरण्यकशिपु गुरुओं पर बहुत क्रोधित हुआ। गुरुओं से यह जान कर कि यह प्रह्लाद का सहज स्वभाव है, वह आपके चरणों की शरण में आए प्रह्लाद पर उसके वध के उपायों का, प्रयोग करने लगा।

स शूलैराविद्ध: सुबहु मथितो दिग्गजगणै- 
र्महासर्पैर्दष्टोऽप्यनशनगराहारविधुत: ।
गिरीन्द्रवक्षिप्तोऽप्यहह! परमात्मन्नयि विभो 
त्वयि न्यस्तात्मत्वात् किमपि न निपीडामभजत ॥७॥

:: प्रह्लाद को अनेक बार शूलों से बिंधवाया गया, विशाल हाथियों से मर्दित करवाया गया, बडे बडे सर्पों से दंशित करवाया गया, निराहा रखा गया, विषाक्त भोजन करवाया गया, गिरीन्द्रों के ऊपर से गिरवाया गया। हे विश्वव्यापक प्रभु! आश्चर्य है कि आपमें मन को स्थिर कर लेने के कारण उसने थोडी सी भी पीडा का अनुभव नहीं किया।

तत: शङ्काविष्ट: स पुनरतिदुष्टोऽस्य जनको
गुरूक्त्या तद्गेहे किल वरुणपाशैस्तमरुणत् ।
गुरोश्चासान्निध्ये स पुनरनुगान् दैत्यतनयान् 
भवद्भक्तेस्तत्त्वं परममपि विज्ञानमशिषत् ॥८॥

:: तब, उसके सशंक और अति दुष्ट पिता ने, गुरु के कहने पर, गुरु के ही घर पर, उसे वरुण पाशों से बंधवा दिया। वहां, जब भी गुरु समीप नहीं होते थे, तब प्रह्लाद अपने संगी दैत्य पुत्रों को आपकी भक्ति की महिमा और उत्तम ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा देता था।

पिता शृण्वन् बालप्रकरमखिलं त्वत्स्तुतिपरं
रुषान्ध: प्राहैनं कुलहतक कस्ते बलमिति ।
बलं मे वैकुण्ठस्तव च जगतां चापि स बलं
स एव त्रैलोक्यं सकलमिति धीरोऽयमगदीत् ॥९॥

:: पिता ने जब सुना कि पूरा बाल समूह आपकी स्तुति करने में लीन है, तब क्रोध से अन्धे हो कर उसने प्रह्लाद को कहा, 'कुल द्रोही! तेरा बल क्या है?' इस पर धीर और निडर प्रह्लाद ने कहा, 'मेरे बल विष्णु है, और आपके भी, और सारे जगत के भी। वे ही त्रिलोक स्वरूप हैं।'

अरे क्वासौ क्वासौ सकलजगदात्मा हरिरिति
प्रभिन्ते स्म स्तंभं चलितकरवालो दितिसुत: ।
अत: पश्चाद्विष्णो न हि वदितुमीशोऽस्मि सहसा 
कृपात्मन् विश्वात्मन् पवनपुरवासिन् मृडय माम् ॥१०॥

:: 'अरे कहां है, कहां है यह सारे जगत का आत्म स्वरूप" इस प्रकार कहते हुए जब दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु ने तलवार चला कर स्तम्भ पर प्रहार किया, तब इसके पश्चात जो हुआ, हे विष्णु! हे ईश्वर! मैं सहसा बोल सकने में समर्थ नहीं हूं। हे कृपात्मन! हे विश्वात्मन! हे पवनपुरवासिन! मुझे परिपूरित कीजिये।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक २२




श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २२   

अजामिलो नाम महीसुर: पुरा
चरन् विभो धर्मपथान् गृहाश्रमी ।
गुरोर्गिरा काननमेत्य दृष्टवान्
सुधृष्टशीलां कुलटां मदाकुलाम् ॥१॥

:: हे प्रभु! बहुत पहले धर्म मार्ग का पालन करने वाला अजामिल नाम का गृहस्थ ब्राह्मण अपने पिता की आज्ञा से वन गया। वहां पहुंच कर उसने एक जिद्दी व्यभिचारिणी मदोन्मत्त स्त्री देखी।

स्वत: प्रशान्तोऽपि तदाहृताशय:
स्वधर्ममुत्सृज्य तया समारमन् ।
अधर्मकारी दशमी भवन् पुन-
र्दधौ भवन्नामयुते सुते रतिम् ॥२॥

:: स्वयं अजामिल अत्यन्त शान्त स्वभाव का था। किन्तु उसमें मन आकृष्ट हो जाने पर वह उसके साथ रमण करने लगा और अधार्मिक हो गया। मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो कर उसका अपने उस पुत्र पर प्रेम होगया जिसको उसने आपका नाम 'नारायण' दिया था।

स मृत्युकाले यमराजकिङ्करान्
भयङ्करांस्त्रीनभिलक्षयन् भिया ।
पुरा मनाक् त्वत्स्मृतिवासनाबलात्
जुहाव नारायणनामकं सुतम् ॥३॥

:: यमराज के तीन भयङ्कर दूतों को देख कर वह भयभीत हो गया। पूर्वकाल में आपकी आराधना की स्मृति के संस्कार के बल से उसने अपने नारायण नाम के पुत्र को पुकारा।

दुराशयस्यापि तदात्वनिर्गत-
त्वदीयनामाक्षरमात्रवैभवात् ।
पुरोऽभिपेतुर्भवदीयपार्षदा:
चतुर्भुजा: पीतपटा मनोरमा: ॥४॥

:: अत्यन्त दुराचारी होने पर भी आपके नामाक्षर मात्र के उच्चारण से उसके सामने आपके पार्षद प्रकट हो गये वे चतुर्भुज थे पीताम्बरधारी थे और अति मनोहर थे।

अमुं च संपाश्य विकर्षतो भटान्
विमुञ्चतेत्यारुरुधुर्बलादमी ।
निवारितास्ते च भवज्जनैस्तदा
तदीयपापं निखिलं न्यवेदयन् ॥५॥

:: आपके पार्षदों ने अजामिल को बांध कर और खींच कर ले जाते हुए यमदूतों को रोका और क्रोधित हो कर कहा कि उसे छोड दें। तब उन दूतों ने उसके समस्त पापों का वर्णन किया।

भवन्तु पापानि कथं तु निष्कृते
कृतेऽपि भो दण्डनमस्ति पण्डिता: ।
न निष्कृति: किं विदिता भवादृशा-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥६॥

:: हे प्रभॊ! आपके पार्षदों ने कहा -'भले ही कितने भी पाप क्यों न हों, प्रायश्चित कर लेने पर भी क्या दण्ड होता है? हे पण्डितों! आप जैसों को क्या प्रायश्चित के बारे में भी कुछ ज्ञान है?

श्रुतिस्मृतिभ्यां विहिता व्रतादय:
पुनन्ति पापं न लुनन्ति वासनाम् ।
अनन्तसेवा तु निकृन्तति द्वयी-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥७॥

:: हे प्रभो! आपके पार्षदों ने कहा कि 'श्रुतियों और स्मृतियों में निर्देशित व्रत पापों को तो परिमार्जित कर देते हैं किन्तु तत जनित वासनाओं का नाश नहीं करते। परन्तु ईश्वर की सेवा दोनों को काट देती है।'

अनेन भो जन्मसहस्रकोटिभि:
कृतेषु पापेष्वपि निष्कृति: कृता ।
यदग्रहीन्नाम भयाकुलो हरे-
रिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥८॥

:: हे प्रभो! आपके पार्षदों ने कहा कि 'अजामिल ने सहस्र करोड जन्मों में किये गये पापों का भी प्रायश्चित कर लिया, क्योंकि भय से त्रस्त इसने हरि के नाम का उच्चारण कर लिया।'

नृणामबुद्ध्यापि मुकुन्दकीर्तनं
दहत्यघौघान् महिमास्य तादृश: ।
यथाग्निरेधांसि यथौषधं गदा -
निति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥९॥

:: हे प्रभो! आपके पार्षदों ने फिर कहा कि 'मुकुन्द के कीर्तन की महिमा ऐसी है कि यह पापों के समूहों को उसी प्रकार जला डालती है, जिस प्रकार अग्नि ईन्धन को और औषधि रोगों को जला डालती है।'

इतीरितैर्याम्यभटैरपासृते
भवद्भटानां च गणे तिरोहिते ।
भवत्स्मृतिं कंचन कालमाचरन्
भवत्पदं प्रापि भवद्भटैरसौ ॥१०॥

:: इस प्रकार समझाये जाने पर, यमदूतों के चले जाने पर और आपके पार्षद समूह के तिरोहित हो जाने पर, अजामिल कुछ समय तक आपकी स्मृति का आचरण करता रहा। फिर आपके पार्षदों के द्वारा उसने आपके पद को प्राप्त कर लिया।

स्वकिङ्करावेदनशङ्कितो यम-
स्त्वदंघ्रिभक्तेषु न गम्यतामिति ।
स्वकीयभृत्यानशिशिक्षदुच्चकै:
स देव वातालयनाथ पाहि माम् ॥११॥

:: यमराज के सेवकों द्वारा सम्पूर्ण वृतान्त निवेदित किए जाने पर, तब विस्मित यमराज ने अत्यन्त कडे हो कर आदेश दिया कि आपके चरणो में भक्ति करने वालों के समीप कदापि न जायें। वही हे देव! हे वातालयनाथ ! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २१







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २१

मध्योद्भवे भुव इलावृतनाम्नि वर्षे
गौरीप्रधानवनिताजनमात्रभाजि ।
शर्वेण मन्त्रनुतिभि: समुपास्यमानं 
सङ्कर्षणात्मकमधीश्वर संश्रये त्वाम् ॥१॥

:: पृथ्वी के मध्य भाग में स्थित इलावृत नाम का स्थान है। वहां, केवल वनिताएं निवास करती हैं जिनमें गौरी प्रधान हैं। वहां शिवजी, अर्धनारीश्वर रूप से मन्त्रों और स्तुतियों के द्वारा आपके संकर्षण स्वरूप की उपासना करते हैं। हे अधीश्वर! मैं आपकी शरण लेता हूं।

भद्राश्वनामक इलावृतपूर्ववर्षे
भद्रश्रवोभि: ऋषिभि: परिणूयमानम् ।
कल्पान्तगूढनिगमोद्धरणप्रवीणं 
ध्यायामि देव हयशीर्षतनुं भवन्तम् ॥२॥

:: इलावृत के पूर्व भाग में स्थित भद्राश्व नामक स्थान में भद्रश्रवा ऋषिगण आपकी संस्तुति करते हैं। कल्पान्त में लुप्त हुए वेदों का उद्धार करने में प्रवीण, आप वहां हयग्रीव स्वरूप में स्थित हैं। मैं आपके उस स्वरूप का ध्यान करता हूं।

ध्यायामि दक्षिणगते हरिवर्षवर्षे
प्रह्लादमुख्यपुरुषै: परिषेव्यमाणम् ।
उत्तुङ्गशान्तधवलाकृतिमेकशुद्ध-
ज्ञानप्रदं नरहरिं भगवन् भवन्तम् ॥३॥

:: इलावृत की दक्षिण दिशा में हरिवर्ष नामक स्थान है। वहां प्रह्लाद आदि मुख्य पुरुषों के द्वारा आपकी आराधना की जाती है। एक मात्र शुद्ध ज्ञान के प्रदाता, हे भगवन! आप वहां उन्नत श्वेत नरहरि के रूप में विराजमान हैं । मैं आपके उस स्वरूप का ध्यान करता हूं।

वर्षे प्रतीचि ललितात्मनि केतुमाले
लीलाविशेषललितस्मितशोभनाङ्गम् ।
लक्ष्म्या प्रजापतिसुतैश्च निषेव्यमाणं
तस्या: प्रियाय धृतकामतनुं भजे त्वाम् ॥४॥

:: इलावृत के पश्चिम भाग में सुन्दरता से युक्त केतुमाल नामक स्थान है। वहां लक्ष्मी और प्रजापति के पुत्र, विशेष लीला से मनोहारी और मन्द मुस्कान से सुशोभित आपके स्वरूप की सेवा करते हैं। लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये आपने कामदेव के स्वरूप को धारण कियाहौ। आपके उस स्वरूप का मैं भजन करता हं।

रम्ये ह्युदीचि खलु रम्यकनाम्नि वर्षे
तद्वर्षनाथमनुवर्यसपर्यमाणम् ।
भक्तैकवत्सलममत्सरहृत्सु भान्तं
मत्स्याकृतिं भुवननाथ भजे भवन्तम् ॥५॥

:: इलावृत के उत्तर में अति रमणीय रम्यक नाम का स्थान है। वहां के स्वामीमनु श्रेष्ठ निरन्तर आपका पूजन करते रहते हैं। हे भुवननाथ! केवल भक्तवत्सल और मात्सर्य रहित हृदयों मे प्रकाशित होने वाले आप वहां मत्स्य रूप में विराजमान हैं। मैं आपकी पूजा करता हूं।

वर्षं हिरण्मयसमाह्वयमौत्तराह-
मासीनमद्रिधृतिकर्मठकामठाङ्गम् ।
संसेवते पितृगणप्रवरोऽर्यमा यं
तं त्वां भजामि भगवन् परचिन्मयात्मन् ॥६॥

:: जो भू भाग हिरण्मय नाम से जाना जाता है, वह रम्यक के उत्तर की ओर है। वहां वह पर्वत (मन्दार) स्थित है, जो आपके कच्छप स्वरूप को वहन करने में सक्षम है, स्थित है। हे परम चिन्मयात्मक भगवन! पितृगणों में श्रेष्ठ अर्यमा कच्छप स्वरूप आपकी उपासना करते हैं। आपके उसी स्वरूप को मैं भजता हं।

किञ्चोत्तरेषु कुरुषु प्रियया धरण्या
संसेवितो महितमन्त्रनुतिप्रभेदै: ।
दंष्ट्राग्रघृष्टघनपृष्ठगरिष्ठवर्ष्मा
त्वं पाहि बिज्ञनुत यज्ञवराहमूर्ते ॥७॥

:: और भी, हिरण्मय के उत्तर भाग में, आपकी प्रियतमा पृथ्वी विभिन्न महा मन्त्रों और स्तुतियों से आपकी उपासना करती हैं। हे ज्ञानियों के द्वारा संस्तुत यज्ञ वराह स्वरूप ईश्वर! आप दांतों के अग्र भाग से बादलो के पृष्ठ को रगडने वाले विशाल आकृति के है। आप मेरी रक्षा करें।

याम्यां दिशं भजति किंपुरुषाख्यवर्षे
संसेवितो हनुमता दृढभक्तिभाजा ।
सीताभिरामपरमाद्भुतरूपशाली
रामात्मक: परिलसन् परिपाहि विष्णो ॥८॥

:: दक्षिण दिशा में किंपुरुष नामक भाग में दृढ भक्तिमान हनुमान के द्वारा आप पूजे जाते हैं। हे विष्णॊ! परम सुन्दरी सीता के संग अद्भुत सौन्दर्य से युक्त राम रूप से सुशो्भित आप, मेरी रक्षा करें।

श्रीनारदेन सह भारतखण्डमुख्यै-
स्त्वं साङ्ख्ययोगनुतिभि: समुपास्यमान: ।
आकल्पकालमिह साधुजनाभिरक्षी
नारायणो नरसख: परिपाहि भूमन् ॥९॥

:: भारतवर्ष में आप नरसखा नारायण रूप से विराजमान हैं। नारद मुनि के साथ साथ भारतवर्ष के प्रमुख जन, सांख्य योग की स्तुतियो के द्वारा आपकी सम्यक उपासना करते हैं। हे भूमन! मेरी रक्षा करें।

प्लाक्षेऽर्करूपमयि शाल्मल इन्दुरूपं
द्वीपे भजन्ति कुशनामनि वह्निरूपम् ।
क्रौञ्चेऽम्बुरूपमथ वायुमयं च शाके
त्वां ब्रह्मरूपमपि पुष्करनाम्नि लोका: ॥१०॥

:: हे प्रभु! प्लाक्ष में सूर्य के रूप में, शाल्मलि में चन्द्र रूप में, कुश नामक द्वीप में अग्नि रूप में, और फिर क्रौञ्च में जल रूप में, शाक में वायु मय, और पुष्कर में ब्रह्म रूप में लोग आपकी पूजा करते हैं।

सर्वैर्ध्रुवादिभिरुडुप्रकरैर्ग्रहैश्च
पुच्छादिकेष्ववयवेष्वभिकल्प्यमानै: ।
त्वं शिंशुमारवपुषा महतामुपास्य:
सन्ध्यासु रुन्धि नरकं मम सिन्धुशायिन् ॥११॥

:: ज्ञानि जन तीनों सन्ध्या के समय आपके शिंशुमार स्वरूप की आराधना करते हैं। आपके उस स्वरूप के पूंछ आदि अवयवों में ध्रुव आदि समस्त नक्षत्र और सूर्य आदि ग्रहों की कल्पना की गई है। हे सिन्धुशायिन! मेरे नरक पात को रोकिये।

पातालमूलभुवि शेषतनुं भवन्तं
लोलैककुण्डलविराजिसहस्रशीर्षम् ।
नीलाम्बरं धृतहलं भुजगाङ्गनाभि-
र्जुष्टं भजे हर गदान् गुरुगेहनाथ ॥१२॥

:: मूल पाताल के भूतल पर आप शेष स्वरूप में विद्यमान हैं। झूमता हुआ एकमात्र कुण्डल आपके हजार फणो को सुशोभित करता है। आपने नीलाम्बर धारण किया है और हल आपका आयुध है। भुजंगाङ्गनाएं आपकी सेवा में रत हैं। आपके इस स्वरूप का मैं भजन करता हं। हे गुरुगेहनाथ! मेरे रोगों को हर लीजिये।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

Saturday, January 26, 2013







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २०


प्रियव्रतस्य प्रियपुत्रभूता-
दाग्नीध्रराजादुदितो हि नाभि: ।
त्वां दृष्टवानिष्टदमिष्टिमध्ये
तवैव तुष्ट्यै कृतयज्ञकर्मा ॥१॥

:: प्रियव्रत के प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र से नाभि का जन्म हुआ। नाभि आप ही की तुष्टि के लिये यज्ञ कर्म कर रहे थे। उसी यज्ञ में उन्हें सभी अभीष्टों के दाता आपके दर्शन हुए।

अभिष्टुतस्तत्र मुनीश्वरैस्त्वं
राज्ञ: स्वतुल्यं सुतमर्थ्यमान: ।
स्वयं जनिष्येऽहमिति ब्रुवाण-
स्तिरोदधा बर्हिषि विश्वमूर्ते ॥२॥

:: मुनीश्वरों ने उस यज्ञ में प्रकट हुए आपकी स्तुति की और राजा नाभि के लिये आपके समान ही पुत्र की याचना की। हे विश्वमूर्ति! तब आपने कहा कि ' मै स्वयं ही जन्म लूंगा'। इस प्रकार कह कर उस यज्ञाग्नि में आप अन्तर्धान हो गये।

नाभिप्रियायामथ मेरुदेव्यां त्वमंशतोऽभू: ॠषभाभिधान: ।
अलोकसामान्यगुणप्रभाव-
प्रभाविताशेषजनप्रमोद: ॥३॥

:: नाभि की प्रिय पत्नी मेरुदेवी से फिर अंश रूप से ऋषभ नाम वाले आप प्रकट हुए। आपके असामान्य अलौकिक गुणों के प्रभाव से सभी आनन्द के भर गये।

त्वयि त्रिलोकीभृति राज्यभारं
निधाय नाभि: सह मेरुदेव्या ।
तपोवनं प्राप्य भवन्निषेवी
गत: किलानन्दपदं पदं ते ॥४॥

:: आप स्वयं ही त्रिलोक का भार वहन करने वाले हैं। आपके ऊपर राज्य का भार डाल कर नाभि, मेरुदेवी के संग तपोवन को चले गये। वहां आपकी ही सेवा अर्चना करते हुए वे परम आनन्द दायक आपके ही धाम वैकुण्ठ को प्राप्त हो गये।

इन्द्रस्त्वदुत्कर्षकृतादमर्षा-
द्ववर्ष नास्मिन्नजनाभवर्षे ।
यदा तदा त्वं निजयोगशक्त्या
स्ववर्षमेनद्व्यदधा: सुवर्षम् ॥५॥

:: आपके उत्कर्ष से ईर्ष्या के वशीभूत हुए इन्द्र ने इस अजनाभ वर्ष के ऊपर वर्षा नहीं की। तब आप अपनी योग शक्ति के व्यवधान से अपने अजनाभवर्ष पर सुन्दर वृष्टि लाये।

जितेन्द्रदत्तां कमनीं जयन्ती-
मथोद्वहन्नात्मरताशयोऽपि ।
अजीजनस्तत्र शतं तनूजा-
नेषां क्षितीशो भरतोऽग्रजन्मा ॥६॥

:: विजित इन्द्र ने तब आपको सुन्दरी जयन्ती प्रदान की। स्वयं अपनी आत्मा में रमण करने के आशय वाले आपने उससे विवाह कर के सौ पुत्रों को जन्म दिया जिनमें से राजा भरत सब से बडे थे।

नवाभवन् योगिवरा नवान्ये
त्वपालयन् भारतवर्षखण्डान् ।
सैका त्वशीतिस्तव शेषपुत्र-
स्तपोबलात् भूसुरभूयमीयु: ॥७॥

:: उन पुत्रों में से नौ तो योगिराज हो गये और दूसरे नौ भारत वर्ष के विभिन्न खन्डों पर राज्य करने लगे। बाकी इक्यासी पुत्र अपने तपोबल से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

उक्त्वा सुतेभ्योऽथ मुनीन्द्रमध्ये
विरक्तिभक्त्यन्वितमुक्तिमार्गम् ।
स्वयं गत: पारमहंस्यवृत्ति-
मधा जडोन्मत्तपिशाचचर्याम् ॥८॥

:: तब आप (ऋषभ देव) मुनीश्वरों के सम्मुख अपने पुत्रों को विरक्ति भक्ति सहित मुक्ति मार्ग का उपदेश दे कर स्वयं परमहंस वृत्ति को प्राप्त हुए और आपने जड उन्मत्त और पिशाचों के आचरण को अपना लिया।
  
परात्मभूतोऽपि परोपदेशं
कुर्वन् भवान् सर्वनिरस्यमान: ।
विकारहीनो विचचार कृत्स्नां
महीमहीनात्मरसाभिलीन: ॥९॥

:: परम आत्मस्वरूप होते हुए भी आप अन्य लोगों को उपदेश देते रहे। सभी से तिरस्कृत होते हुए भी विकारहीन, परमानन्द रस में अभिलीन हुए आप पूरी पृथ्वी पर विचरते रहे।

शयुव्रतं गोमृगकाकचर्यां
चिरं चरन्नाप्य परं स्वरूपं ।
दवाहृताङ्ग: कुटकाचले त्वं
तापान् ममापाकुरु वातनाथ ॥१०॥

:: सर्प की वृत्ति और गौ मृग एवं काक की जीवन चर्या को चिर काल तक निभाते हुए आप स्वयं के परम स्वरूप को प्राप्त हो गये। फिर कुटकाचल पर दावाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर को भस्म कर दिया। हे वातनाथ! मेरे तापों को दूर करें।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १९







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १९ 

पृथोस्तु नप्ता पृथुधर्मकर्मठ:
प्राचीनबर्हिर्युवतौ शतद्रुतौ ।
प्रचेतसो नाम सुचेतस: सुता-
नजीजनत्त्वत्करुणाङ्कुरानिव ॥१॥

:: पृथु के प्रपौत्र प्राचीनबर्ही ने जो कठोर धर्म के कर्मों में निष्णात थे, युवती शतद्रुति से प्रचेतस नाम के शुद्ध बुद्धि वाले दस पुत्रों को जन्म दिया। वे इतने कोमल हृदय के थे मानो आपकी करुणाके ही अंकुर हों।

पितु: सिसृक्षानिरतस्य शासनाद्-
भवत्तपस्याभिरता दशापि ते
पयोनिधिं पश्चिममेत्य तत्तटे
सरोवरं सन्ददृशुर्मनोहरम् ॥२॥

:: सृष्टि करने में निरत पिता के द्वारा आदेश दिये जाने पर, आपकी ही तपस्या मे लगे हुए ये दस समुद्र के पश्चिम तट पर चले गये। वहां उन्होने एक अत्यन्त मनोहर सरोवर देखा।

तदा भवत्तीर्थमिदं समागतो
भवो भवत्सेवकदर्शनादृत: ।
प्रकाशमासाद्य पुर: प्रचेतसा-
मुपादिशत् भक्ततमस्तव स्तवम् ॥३॥

:: तब भक्तश्रेष्ठ शंकर जो आपके भक्तों के दर्शन के लिये उत्सुक थे, आपके उस तीर्थ सरोवर के पास जा कर प्रचेतसों के सामने प्रकट हुए और उन्हें आपके स्तोत्र का उपदेश दिया।

स्तवं जपन्तस्तममी जलान्तरे
भवन्तमासेविषतायुतं समा: ।
भवत्सुखास्वादरसादमीष्वियान्
बभूव कालो ध्रुववन्न शीघ्रता ॥४॥

:: जल के अन्दर जा कर उस स्तोत्र का जप करते हुए उन्हें दस हजार वर्ष व्यतीत हो गये। आपके ब्रह्म सुख के आनन्द के रसास्वादन से उन्हें इतना समय लग गया। ध्रुव के समान शीघ्रता से यह नहीं घटा।

तपोभिरेषामतिमात्रवर्धिभि:
स यज्ञहिंसानिरतोऽपि पावित: ।
पिताऽपि तेषां गृहयातनारद-
प्रदर्शितात्मा भवदात्मतां ययौ ॥५॥

:: प्रचेतसों की अत्यधिक मात्रा में बढती हुई तपस्या से वेन, जो यज्ञॊ में हिंसा में निरत रहता था, पवित्र हो गया। प्रचेतसों के पिता प्राचीनबर्ही भी, घर आये नारद के द्वारा दिखाये गये आत्मज्ञान के द्वारा आप में आत्मसात हो गये।

कृपाबलेनैव पुर: प्रचेतसां
प्रकाशमागा: पतगेन्द्रवाहन: ।
विराजि चक्रादिवरायुधांशुभि-
र्भुजाभिरष्टाभिरुदञ्चितद्युति: ॥६॥

:: अपनी कृपा के बल से आप प्रचेतसों के समक्ष प्रकट हुए। उस समय आपकी अष्ट भुजायें चक्र आदि श्रेष्ठ आयुधों से युक्त थीं और गरुड के वाहन पर विराजे हुए आपकी कान्ति देदीप्यमान हो रही थी।

प्रचेतसां तावदयाचतामपि
त्वमेव कारुण्यभराद्वरानदा: ।
भवद्विचिन्ताऽपि शिवाय देहिनां
भवत्वसौ रुद्रनुतिश्च कामदा ॥७॥

:: प्रचेतसों के याचना न करने पर भी आपने करुणा के वशीभूत हो कर उन्हें वर प्रदान किया कि उनके स्मरण मात्र से शरीरधारियों का कल्याण होगा और रुद्र के द्वारा गाई गई यह स्तुति समस्त अभीष्टों को प्रदान करने वाली होगी।

अवाप्य कान्तां तनयां महीरुहां
तया रमध्वं दशलक्षवत्सरीम् ।
सुतोऽस्तु दक्षो ननु तत्क्षणाच्च मां
प्रयास्यथेति न्यगदो मुदैव तान् ॥८॥

:: वृक्षों की कन्या को पत्नी के रूप में प्राप्त करके आप उसके संग दस लाख वर्षों तक रमण करें। आपको दक्ष नाम के पुत्र की प्राप्ति होगी। तत्पश्चात उसी क्षण, निश्चय ही मुझे प्राप्त करें' इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक आपने उनको कहा।

ततश्च ते भूतलरोधिनस्तरून्
क्रुधा दहन्तो द्रुहिणेन वारिता: ।
द्रुमैश्च दत्तां तनयामवाप्य तां
त्वदुक्तकालं सुखिनोऽभिरेमिरे ॥९॥

:: और तब वे कुपित हो कर, भूतल को अवरोधित करते हुए तरुओ को जलाने लगे। तब ब्रह्मा जी ने उन्हे रोका। फिर तरुओं के द्वारा दी गई कन्या को पत्नी रूप में पा कर उन्होंने आपके द्वारा कहे गये समय तक उसके संग सुख पूर्वक रमण किया।

अवाप्य दक्षं च सुतं कृताध्वरा:
प्रचेतसो नारदलब्धया धिया ।
अवापुरानन्दपदं तथाविध-
स्त्वमीश वातालयनाथ पाहि माम् ॥१०॥
:: दक्ष नामक पुत्र को पा कर प्रचेतस ने ब्रह्म सत्र किया। नारद से प्राप्त ज्ञान वाली बुद्धि वाले वे लोग आनन्द पद (आपको) को प्राप्त हुए। इस प्रकार के हे ईश्वर! वातालयनाथ! आप मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय नम: