Saturday, February 2, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - २८


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - २८

गरलं तरलानलं पुरस्ता-ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥

:: सब के सामने सब से पहले तरल अग्नि के समान कालकूट विष समुद्र में से बाहर निकला। देवों के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न हो कर शंकर जी आपकी प्रसन्नता के लिये उसे पी गये।

विमथत्सु सुरासुरेषु जाता सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥

:: देवों और दानवों के द्वारा मन्थन करते हुए सुरभि, कामधेनु गाय प्रकट हुई, जिसको आपने ऋषियों को दे दिया। हे त्रिधामन! फिर अश्वरत्न उच्चैश्रवा और गजरत्न ऐरावत और अप्सरायें निकलीं, जिन्हें आपने देवों को दे दिया।

जगदीश भवत्परा तदानीं कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल: सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥

:: उसी समय आपसे उन्मुख सुशोभित लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। उन निर्मल कमला को देख कर सारे लोक अभिभूत हो गये और सभी उनको पाने के इच्छुक हो उठे।

त्वयि दत्तहृदे तदैव देव्यै त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै: ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥

:: उन देवी को, जो आपमें ही दत्तचित्त थीं, इन्द्र ने मणिपीठिका प्रदान की। सभी स्थानों से लाये हुए अभिषेक जलों से एवं वेद मन्त्रों से ऋषियों ने उनका अभिषेक किया।

अभिषेकजलानुपातिमुग्ध-त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार- प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥

:: अभिषेक जलों से संसिञ्चित होते हुए तथा आपके अनुराग पूर्ण कटाक्षों से लक्ष्मी देवी विषेश रूप से सुसज्जित हुईं। देवताओं आदि ने तब उन्हें मणिकुण्डल, पीताम्बर हार आदि से अलंकृत किया।

वरणस्रजमात्तभृङ्गनादां दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥

:: कुच रूपी कलशों के भार से मन्द गति वाली, पैरों में सुशोभित नूपुरों की झंकार वाली, किञ्चित लज्जा के भाव के साथ, भंवरों के गुञ्जार से व्याप्त वरण माल को उठाए हुए लक्ष्मी देवी आपके समीप आईं।

गिरिशद्रुहिणादिसर्वदेवान् गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥

लक्ष्मी देवी ने यह समझ कर कि शंकर ब्रह्मा आदि सभी देव गुणयुक्त होते हुए भी किसी न किसी दोष के लेश से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, सदैव ही सर्व रमणीय आपके गले में दिव्य वरण माला डाल दी।

उरसा तरसा ममानिथैनां भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री- परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥

आपने अनन्यभावा जगत जननी को शीघ्र ही वक्षस्थल से लगा कर सम्मान दिया। आपके वक्षस्थल पर सुशोभित हुई उनकी दृष्टि के वैभव से विश्व परिपुष्ट हो गया।

अतिमोहनविभ्रमा तदानीं मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना- मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥

तब अति मनोहर और विभ्रामक और निश्चित रूप से मदोन्मत्त करने वाली वारुणी निकली जो सभी तामसिक प्रवृत्तियों की अधिष्ठाता है। आपने अत्यन्त सम्मान के साथ उसको महा असुरों को दे दिया।

तरुणाम्बुदसुन्दरस्तदा त्वं ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या- मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥

तब आप ही तरुण मेघों के समान सुन्दर धन्वन्तरि के रूप में समुद्र में से प्रकट हुए। आपके दोनों हाथों में अमृत का कलश था। हे मारुतालयेश! मेरे सभी क्लेशों का हरण कीजिये।

ॐ नमो नारायणाय नम: ..

1 comment:

  1. विलक्ष्ण विवाचन ...ॐ नमो नारायण

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