Sunday, February 10, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३१


श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३१ 

प्रीत्या दैत्यस्तव तनुमह:प्रेक्षणात् सर्वथाऽपि
त्वामाराध्यन्नजित रचयन्नञ्जलिं सञ्जगाद ।
मत्त: किं ते समभिलषितं विप्रसूनो वद त्वं
वित्तं भक्तं भवनमवनीं वाऽपि सर्वं प्रदास्ये ॥१॥


:: अहो! आपका स्वरूप देख कर प्रसन्न हुए दैत्य ने सब प्रकार से (षोडशोपचार से) आपकी आराधना की। हे अजित! तब अञ्जलि बना कर उसने भलि प्रकार से कहा ’हे ब्राह्मण पुत्र! आपको मुझसे क्या अभिलाषा है ? धन भोजन भवन भूमि या ये सभी, कहें, मैं दूंगा।

तामीक्षणां बलिगिरमुपाकर्ण्य कारुण्यपूर्णोऽ-
प्यस्योत्सेकं शमयितुमना दैत्यवंशं प्रशंसन् ।
भूमिं पादत्रयपरिमितां प्रार्थयामासिथ त्वं
सर्वं देहीति तु निगदिते कस्य हास्यं न वा स्यात् ॥२॥


:: बलि की उस निर्भीक वाणी को सुन कर करुणा से परिपूर्ण होने पर भी आपने दैत्य वंश की प्रशंसा करते हुए तीन पगों की परिमिति की भूमि की याचना की। यदि यह भी कह देते कि सब दे दो, तब भी किसकी हंसी का पात्र नहीं होते?

विश्वेशं मां त्रिपदमिह किं याचसे बालिशस्त्वं
सर्वां भूमिं वृणु किममुनेत्यालपत्त्वां स दृप्यन् ।
यस्माद्दर्पात् त्रिपदपरिपूर्त्यक्षम: क्षेपवादान्
बन्धं चासावगमदतदर्होऽपि गाढोपशान्त्यै ॥३॥


:: ”मैं विश्व का ईश्वर हूं। मुझसे यहां तीन पगों की परिमिति की भूमि क्या मांगते हो, सारी पृथ्वी का वरण करो’ उसने इस प्रकार गर्व से कहा। इसी गर्व के कारण वह तीन पगों की भूमि देने में तो असमर्थ रहा ही, इसका पात्र न होने पर भी आक्षेपों और बन्धन का भी भागी हुआ। यह सब उसकी आत्यन्तिक उपशान्ति के लिये ही था।

पादत्रय्या यदि न मुदितो विष्टपैर्नापि तुष्ये-
दित्युक्तेऽस्मिन् वरद भवते दातुकामेऽथ तोयम् ।
दैत्याचार्यस्तव खलु परीक्षार्थिन: प्रेरणात्तं
मा मा देयं हरिरयमिति व्यक्तमेवाबभाषे ॥४॥


:: ”यदि पादत्रयी से सन्तोष नहीं है तो यह विश्व त्रयी से भी सन्तुष्ट नहीं होगा’, इस प्रकार जब उसने कहा और दान देने की इच्छा से जल हाथ में ले लिया, तब दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य ने बलि की परीक्षा लेने की इच्छा से, आपकी ही प्रेरणा से बलि को स्पष्ट रूप से कहा कि ’यह हरि है, मत दो मत दो।’

याचत्येवं यदि स भगवान् पूर्णकामोऽस्मि सोऽहं
दास्याम्येव स्थिरमिति वदन् काव्यशप्तोऽपि दैत्य: ।
विन्ध्यावल्या निजदयितया दत्तपाद्याय तुभ्यं
चित्रं चित्रं सकलमपि स प्रार्पयत्तोयपूर्वम् ॥५॥


:: बलि ने कहा कि ’ यदि स्वयं भगवान इस प्रकार याचना करते हैं तो मैं पूर्ण काम हो गया और मैं अवश्य ही दूंगा।’ इस पर शुक्राचार्य के द्वारा शपित हो जाने पर भी बलि ने अपनी पत्नी विन्ध्यावली के द्वारा पाद्य जल अर्पित करते हुए ही आपके लिये सर्वस्व समर्पित कर दिया। आश्चर्यजनक है यह!

निस्सन्देहं दितिकुलपतौ त्वय्यशेषार्पणं तद्-
व्यातन्वाने मुमुचु:-ऋषय: सामरा: पुष्पवर्षम् ।
दिव्यं रूपं तव च तदिदं पश्यतां विश्वभाजा-
मुच्चैरुच्चैरवृधदवधीकृत्य विश्वाण्डभाण्डम् ॥६॥


:: निस्संदेह रूप से, जब दैत्यराज ने आपको सर्वस्व समर्पित कर दिया, तब ऋषियों ने देवों के सहित आप पर पुष्प वृष्टि की। विश्व जनों को आपका जो दिव्य स्वरूप दिखाई दे रहा था वह, विश्व के अण्ड भाण्ड की सीमाओं को पार कर ऊंचा और ऊंचा बढने लगा।

त्वत्पादाग्रं निजपदगतं पुण्डरीकोद्भवोऽसौ
कुण्डीतोयैरसिचदपुनाद्यज्जलं विश्वलोकान् ।
हर्षोत्कर्षात् सुबहु ननृते खेचरैरुत्सवेऽस्मिन्
भेरीं निघ्नन् भुवनमचरज्जाम्बवान् भक्तिशाली ॥७॥


:: आपके विशाल स्वरूप के बढते बढते, जब आपके चरण सत्यलोक में पहुंचे, तब कमलजन्मा ब्रह्मा ने आपके चरणाग्र को अपने कमण्डलु के जल से धोया। उस जल से, गंगा के रूप में, विश्व के सभी लोक पवित्र हो गये । हर्षविभोर हो कर गगनचारी गन्धर्व विद्याधर आदि खूब नाचे और इस उत्सव में नगाडे बजाते हुए भक्तिमान जाम्बवान सारे भुवनों में घूमते रहे।

तावद्दैत्यास्त्वनुमतिमृते भर्तुरारब्धयुद्धा
देवोपेतैर्भवदनुचरैस्सङ्गता भङ्गमापन् ।
कालात्माऽयं वसति पुरतो यद्वशात् प्राग्जिता: स्म:
किं वो युद्धैरिति बलिगिरा तेऽथ पातालमापु: ॥८॥


:: हे भगवन! तब तक अपने स्वामी की आज्ञा के बिना असुरों ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया। उस समय आपके साथ आये भट्टों द्वारा वे असुर पराजित कर दिये गये। तब बलि ने उनसे कहा कि "कालस्वरूप साक्षात विष्णु सामने खडे हैं जिनकी कृपा से हम लोग पहले जीत चुके हैं। युद्ध करने से कोई लाभ नहीं है।" यह सुन कर असुर-गण पाताल में चले गये।

पाशैर्बद्धं पतगपतिना दैत्यमुच्चैरवादी-
स्तार्त्तीयीकं दिश मम पदं किं न विश्वेश्वरोऽसि ।
पादं मूर्ध्नि प्रणय भगवन्नित्यकम्पं वदन्तं
प्रह्लाद्स्तं स्वयमुपगतो मानयन्नस्तवीत्त्वाम् ॥९॥


:: गरुड ने बलि को पाशों से बांध दिया। तब आपने ऊंचे स्वर में बलि से कहा कि ’मेरे तीसरे पग के लिये स्थान दो। क्यों नहीं? तुम तो जगदीश्वर हो न?’ बलि ने अविचलित भाव से कहा कि ’भगवन तीसरा पग मेरे सिर पर रखिये’। तब स्वयं प्रह्लाद बलि के समीप आ कर उसकी प्रशंसा करते हुए आपकी स्तुति गाने लगे।

दर्पोच्छित्त्यै विहितमखिलं दैत्य सिद्धोऽसि पुण्यै-
र्लोकस्तेऽस्तु त्रिदिवविजयी वासवत्वं च पश्चात् ।
मत्सायुज्यं भज च पुनरित्यन्वगृह्णा बलिं तं
विप्रैस्सन्तानितमखवर: पाहि वातालयेश ॥१०॥


:: ’हे असुर तुम्हारे दर्प का उच्छेदन करने के लिये यह सब रचा गया था। तुम अपने पुण्य कर्मों से सिद्ध हो गये हो। अब तुम सुतल लोक मे राज्य करोगे जो स्वर्ग लोक से भी उत्तम है। तत्पश्चात तुम इन्द्रत्व प्राप्त करोगे और फिर मेरे सायुज्य का भोग करोगे’। इस प्रकार बलि पर अनुग्रह करने के बाद आपने विप्रों के द्वारा उस श्रेष्ठ विश्वजित यज्ञ को पूर्ण करवाया। हे वातालयेश! मेरी रक्षा करें।

ॐ नमो नारायणाय ..

No comments:

Post a Comment