Wednesday, October 3, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १८







                          श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १८  

 

जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्ते- रङ्गस्य व्यजनि सुत: स वेननामा ।
यद्दोषव्यथितमति: स राजवर्य- स्त्वत्पादे निहितमना वनं गतोऽभूत् ॥१  

ध्रुव के ही कुल में बहुत विख्यात कीर्ति वाले राजा अङ्ग हुए। उनके पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम वेन था। वेन के कुचरित्र से दु:खी राजश्रेष्ठ अङ्ग ने आपके चरणो मे मन को लगा लिया और वन को चले गये।


पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेन: पौराद्यैरुपनिहित: कठोरवीर्य: ।
सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रशंसन् भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥२॥  

पृथ्वी के शासक की कमी होने के कारण, वेन के पापी होने पर भी पुरवासियों ने उसका राजतिलक कर दिया। क्रूर वीरता वाले उसने लोगों से अपनी ही वीरता की प्रशंसा करवाते हुए भूतल पर आपके पूजन अर्चनादि पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।


सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्वरैस्तै: शापाग्नौ शलभदशामनायि वेन: ॥३॥  

मुनि समुदाय वेन के हितार्थ वचन कहने के लिये उसके पास गये, किन्तु उसने कहा कि सम्पूर्ण भुवन मण्डल में उसके समान प्रतापी कोई है ही नहीं और आपकी निन्दा करने में प्रवृत्त हो गया। तब उन मुनीश्वरों ने शापाग्नि में जला कर उसे शलभ समान कर दिया।


तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रै- स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।
त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डा- द्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासी: ॥४॥  

वेन के नाश होने से दुष्टों की अराजकता के भय से मुनिजन भयभीत हो गये । तब वेन की माता के द्वारा दीर्घकाल तक सुरक्षित रखे गये उसके शरीर में से जङ्घाओं के मथे जाने पर वेन के पाप निकल गये। फिर उसके बाहु दण्डों को मथा गया। तब स्वयं आप प्रकट हो गये।


विख्यात: पृथुरिति तापसोपदिष्टै: सूताद्यै: परिणुतभाविभूरिवीर्य: ।
वेनार्त्या कबलितसम्पदं धरित्री- माक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षी: ॥५॥

इस अवतार में आप पृथु नाम से विख्यात हुए। तपस्वियों के उपदेश से सूत आदि ने आपके भावी पराक्रम की स्तुति और प्रशंसा की। वेन के सताये जाने पर पृथ्वी ने अपनी सम्पदाएं आत्मसात कर ली थी। अप धनुष से आक्रमण कर के आपने उन्हे समान तल पर खींच कर ले आए।


भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्त्यै- र्देवाद्यै: समुचितचारुभाजनेषु ।
अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥६॥

तब फिर से आपने देवादि के द्वारा अपने अपने कुल के प्रधान पुरुषों के साथ अत्यन्त सुन्दर पात्रों में अन्न औषधि आदि जो कुछ भी अभिलषित था, उन वस्तुओं का सुरभि रूपी पृथ्वी से दोहन करवाया।


आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम- न्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
स्पर्धालु: शतमख एत्य नीचवेषो हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥७॥

हे त्रिधामन! यज्ञों के द्वारा आप स्वयं का स्वयं ही यजन कर रहे थे। सौवें अश्वमेध यज्ञ के प्रारम्भ होने के समय ईर्ष्यालू इन्द्र ने कपट वेष में यज्ञ अश्व चुराने का प्रयत्न किया, तब वह आपके पुत्र के द्वारा हरा दिया गया।


देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।
रुन्धाने कमलभवे क्रतो: समाप्तौ साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथा: स्वयं स्वम् ॥८॥

इन्द्र के इस प्रकार बार बार घोडे को चुरा लेने से खिन्न मुनिमण्डल उसे ही अग्नि में होम देना चाहते थे, किन्तु ब्रह्मा जी ने उन्हें रोक दिया। यज्ञ के समाप्त होने पर आपने (पृथु ने) स्वयं ही स्वयं को साक्षात मधुसूदन रूप में देखा।

तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां गङ्गान्ते विहितपद: कदापि देव ।
सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस- न्नैक्षिष्ठा: सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥९॥

मधुसूदन से आपने (पृथु ने) एकनिष्ठ भक्ति का वरदान पाया। हे देव! एक बार गङ्गा के तट पर चुने हुए स्थान पर यज्ञ मे उपस्थित मुनिवृन्द को आप धर्म का उपदेश दे रहे थे। उसी समय आपने अपने समक्ष सनकादि मुनियों को देखा।


विज्ञानं सनकमुखोदितं दधान: स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।
तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥१०॥

फिर आप वन में रहने लगे। सनकादि मुनियों के द्वारा दिये गये ब्रह्म ज्ञान के उपदेश को भली भांति धारण करते हुए आपने स्वयं अपनी आत्मा को स्वयं के भीतर प्राप्त किया। ऐसे पृथुवपुधारी ईश! हे वातगेहवासिन! शीघ्र ही मेरे रोग समूहों को नष्ट कीजिये।  


ॐ नमो नारायणाय नम: ..

 


Tuesday, October 2, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १७







                       श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १७ 

 

उत्तानपादनृपतेर्मनुनन्दनस्य जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।
अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सात्वामेव नित्यमगति: शरणं गताऽभूत् ॥१॥

मनु पुत्र उत्तानपाद की पत्नी सुरुचि उनकी अत्यन्त प्रिया थी। दूसरी पत्नी सुनीति पति से अवहेलित और शरणहीन थी। वह नित्य प्रति आपकी ही शरण में जाती थी, आप जो अशरणों के शरण हैं।


अङ्के पितु: सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं दृष्ट्वा ध्रुव: किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।
आचिक्षिपे किल शिशु: सुतरां सुरुच्या दुस्सन्त्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥२॥

पिता की गोद में सुरुचि के पुत्र उत्तम को देख कर सुनीति के पुत्र ध्रुव ने भी पिता की गोद में चढने का उपक्रम किया। फलस्वरूप उस बालक को सुरुचि ने अत्यधिक कठोरता से डांटा। निश्चय ही, आप से विमुख लोग ईर्ष्या और द्वेष को आसानी से नहीं छोड पाते।


त्वन्मोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये दूरं दुरुक्तिनिहत: स गतो निजाम्बाम् ।
साऽपि स्वकर्मगतिसन्तरणाय पुंसां त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥३॥

आपकी माया से मोहित होने पर पत्नी के वशीभूत हुए पिता के चुपचाप देखते रह जाने पर कटुवचनों से आहत ध्रुव वहां से हट गया और अपनी माता के पास गया। माता ने भी उस बालक को यही बतलाया कि मनुष्य मात्र को अपने कर्मों की गति को पार करने के लिये, एकमात्र आप ही की शरण में जाना होता है।


आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चननिश्चितात्मा मानी निरेत्य नगरात् किल पञ्चवर्ष: । सन्दृष्टनारदनिवेदितमन्त्रमार्ग- स्त्वामारराध तपसा मधुकाननान्ते ॥४॥

यह सुन कर वह पांच वर्षीय स्वाभिमानी बालक आपकी आराधना का मन में दृढ निश्चय कर के नगर से निकल गया। मार्ग में उसकी नारद जी से भेंट हुई और उनसे मन्त्र मार्ग की दीक्षा मिली। फिर वह मधुवन में जा कर आपकी आराधना और तपस्या करने लगा।
 

ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन श्रीनारदेन परिसान्त्वितचित्तवृत्तौ ।
बालस्त्वदर्पितमना: क्रमवर्धितेन निन्ये कठोरतपसा किल पञ्चमासान् ॥५॥

ध्रुव के पिता उत्तानपाद का हृदय अत्यन्त दुखित हो गया। उसी समय नारद जी उनके नगर को गये और उनको सान्त्वना देते हुए शान्त किया। ध्रुव भी एकाग्र चित्त से आपकी आराधना करते रहा और क्रमश: उसकी तपस्या बढती गई। इस प्रकार उसने पांच महीने बिताए।


तावत्तपोबलनिरुच्छ्-वसिते दिगन्ते देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्द्रचेता: ।
त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमते: पुरस्ता- दाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढ: ॥६॥

ध्रुव के तप के बल से सभी दिशांओं में श्वासावरोध हो गया। तब देवताओं ने आपसे प्रार्थना की। ध्रुव के तप और देवों की प्रार्थना से करुणा के उदित होने से आपका मन पिघल गया। आपके स्वरूपभूत चिदानन्द रस में निमग्न उस बालक ध्रुव के समक्ष फिर आप गरुड के ऊपर आरूढ हो कर प्रकट हुए।


त्वद्दर्शनप्रमदभारतरङ्गितं तं दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।
तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥७॥

आपके दर्शन जनित हर्ष के अतिरेक से ध्रुव का तरङ्गित मन आपके स्वरूप के अमृत में डूब गया। वह स्तुति करने का इच्छुक है यह समझ कर आपने उसके गाल पर प्यार से अपना शंख छुआ दिया।


तावद्विबोधविमलं प्रणुवन्तमेन- माभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।
राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूय: सर्वोत्तरं ध्रुव पदं विनिवृत्तिहीनम् ॥८॥

तब तक तत्त्व बोध से विमल हुआ ध्रुव आपकी स्तुति करने लगा। उसके मनोभाव को जानते हुए आपने कहा - 'चिरकाल तक राज्य का उपभोग कर लेने के पश्चात तुम सब से ऊपर स्थित ध्रुव पद को प्राप्त करो, जो पुनरावृत्ति रहित लोक है।'


इत्यूचिषि त्वयि गते नृपनन्दनोऽसा- वानन्दिताखिलजनो नगरीमुपेत: ।
रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकाम- स्ताते गते च वनमादृतराज्यभार: ॥९॥

सभी लोगों को आनन्दित करता हुआ यह राजकुमार ध्रुव नगर को लौट गया। उसके पिता उसके ऊपर राज्य भार सौंप कर वन को चले गये। आपकी कृपा से पूर्ण काम हुए ध्रुव ने चिरकाल तक राज्य का उपभोग किया।


यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन् यक्षै: स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।
शान्त्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेता- त्त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥१०॥

 यक्ष के द्वारा उत्तम के मारे जाने पर ध्रुव उस यक्ष के साथ युद्ध करने लगे किन्तु फिर मनु के कहने पर युद्ध को रोक भी दिया। ध्रुव के शान्त स्वभाव से प्रसन्न हो कर कुबेर उसके पास पहुंचे। महात्मा ध्रुव ने कुबेर से भी आपमें दृढ भक्ति का ही वरदान मांगा।


अन्ते भवत्पुरुषनीतविमानयातो मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।
एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं वातालयाधिप निरुन्धि ममामयौघान् ॥११॥

आपके पार्षदों के द्वारा लाये गये विमान पर ध्रुव अपनी माता के संग चले गये। वे ध्रुव पद पर प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हैं। इस प्रकार अपने सेवको के पालन में उद्यत हे वातालयाधिप! मेरे कष्ट समूहों का नाश करें।


ॐ नमो नारायणाय नम: ..

 


Monday, October 1, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १६





                     श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १६  


दक्षो विरिञ्चतनयोऽथ मनोस्तनूजां लब्ध्वा प्रसूतिमिह षोडश चाप कन्या: ।
धर्मे त्रयोदश ददौ पितृषु स्वधां च स्वाहां हविर्भुजि सतीं गिरिशे त्वदंशे ॥१॥

तब, ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने मनु की पुत्री प्रसुति को पत्नी के रूप में पा कर, उससे सोलह कन्याएं प्राप्त कीं। उनमें से तेरह कन्याओं को धर्म को दे दिया, पितरों को स्वधा को दे दिया, स्वाहा को अग्नि को और सती को आपके ही अंश शंकर को दे दिया।

 
मूर्तिर्हि धर्मगृहिणी सुषुवे भवन्तं नारायणं नरसखं महितानुभावम् ।
यज्जन्मनि प्रमुदिता: कृततूर्यघोषा: पुष्पोत्करान् प्रववृषुर्नुनुवु: सुरौघा: ॥२॥

धर्म की पत्नी मूर्ति ने ही अत्यन्त महिमाशाली आप नारायण को नर के साथ जन्म दिया। आपके उस जन्म के समय देव गण हर्षोल्लास सहित दुन्दुभियों का घोष करने लगे, और फूलों के समूहों की वर्षा करते हुए आपका स्तवन करने लगे।


दैत्यं सहस्रकवचं कवचै: परीतं साहस्रवत्सरतपस्समराभिलव्यै: ।
पर्यायनिर्मिततपस्समरौ भवन्तौ शिष्टैककङ्कटममुं न्यहतां सलीलम् ॥३॥

सहस्र कवचमक दैत्य हजारों कवचों से सन्नद्ध था। वे कवच हजारों वर्षों की तपस्या और युद्ध से ही भेदे जा सकते थे। आप दोनों, नर और नारायण ने, बारी बारे से युद्ध और तपस्या कर के उनका भेदन किया। जब मात्र एक कवच बच गया तब आप दोनों ने उसे बिना श्रम के मार डाला।


अन्वाचरन्नुपदिशन्नपि मोक्षधर्मं त्वं भ्रातृमान् बदरिकाश्रममध्यवात्सी: ।
शक्रोऽथ ते शमतपोबलनिस्सहात्मा दिव्याङ्गनापरिवृतं प्रजिघाय मारम् ॥४॥

आप मोक्ष धर्म का अभ्यास करने के साथ साथ उसका उपदेश और प्रचार भी करते हुए अपने भाई नर के साथ बदरिकाश्रम में निवास करने लगे। आपके इन्द्रिय निग्रह और तपोबल को देख कर ईर्ष्यालु इन्द्र ने दिव्याङ्गनाओं से घिरे हुए कामदेव को आपके पास भेजा।


कामो वसन्तमलयानिलबन्धुशाली कान्ताकटाक्षविशिखैर्विकसद्विलासै: । विध्यन्मुहुर्मुहुरकम्पमुदीक्ष्य च त्वां भीरुस्त्वयाऽथ जगदे मृदुहासभाजा ॥५॥

कामदेव अपने बन्धुओं वसन्त और मलय वायु के साथ वहां गये। विलास को बढाने वाले कामिनियॊ के कटाक्षों से उसने आपको बार बार भेदना चाहा। किन्तु आपको अविचलित देख कर वह डर गया। उस डरपोक को आपने मन्द मुस्कान से कहा-


भीत्याऽलमङ्गज वसन्त सुराङ्गना वो मन्मानसं त्विह जुषध्वमिति ब्रुवाण: ।
त्वं विस्मयेन परित: स्तुवतामथैषां प्रादर्शय: स्वपरिचारककातराक्षी: ॥६॥

कामदेव, वसन्त और देवाङ्गनाओं! तुम लोग डरो मत। मेरे पास यहां आकर मेरे मानस का अनुशीलन करो।' आपके इस प्रकार कहने पर वे अत्यन्त विस्मित हो कर आपके निकट जा कर आपकी स्तुति करने लगे। स्तुति करते हुए उनको आपने अपनी सुन्दर नेत्रों वाली परिचारिकाओं को दिखलाया।


सम्मोहनाय मिलिता मदनादयस्ते त्वद्दासिकापरिमलै: किल मोहमापु: ।
दत्तां त्वया च जगृहुस्त्रपयैव सर्व- स्वर्वासिगर्वशमनीं पुनरुर्वशीं ताम् ॥७॥

कामदेव अदि जो मिलकर आपको सम्मोहित करने के लिये आये थे, आपकी परिचारिकाओं की गन्ध से स्वयं ही मुग्ध हो गये। जब आपने स्वर्गवासी सुराङ्गनाओं के गर्व का शमन करने वाली उर्वशी उन्हे प्रदान की तब उन्होंने उसे अत्यन्त लज्जा सहित ग्रहण किया।


दृष्ट्वोर्वशीं तव कथां च निशम्य शक्र: पर्याकुलोऽजनि भवन्महिमावमर्शात् ।
एवं प्रशान्तरमणीयतरावतारा- त्त्वत्तोऽधिको वरद कृष्णतनुस्त्वमेव ॥८॥

उर्वशी को देख कर और आपकी वार्ताएं सुन कर, आपकी महिमा से अज्ञात होने के कारण इन्द्र व्याकुल हो गया। हे वरद! आपके इस अत्यन्त शान्त और रमणीय नर नारायण के अवतार से आपका कृष्ण स्वरूप अवतार ही अधिक महान है।


दक्षस्तु धातुरतिलालनया रजोऽन्धो नात्यादृतस्त्वयि च कष्टमशान्तिरासीत् ।
येन व्यरुन्ध स भवत्तनुमेव शर्वं यज्ञे च वैरपिशुने स्वसुतां व्यमानीत् ॥९॥

ब्रह्मा के अत्यधिक स्नेह से लालित दक्ष रजोगुण जनित राग से अंधे हो गये। वे आपका भी आदर नहीं करते थे। इसी कारण वे अशान्त रहते थे। खेद है कि उन्होंने आपके ही अंश स्वरूप शंकर से यज्ञ में वैर सूचक व्यवहार किया और अपनी ही कन्या का निरादर किया।


क्रुद्धेशमर्दितमख: स तु कृत्तशीर्षो देवप्रसादितहरादथ लब्धजीव: ।
त्वत्पूरितक्रतुवर: पुनराप शान्तिं स त्वं प्रशान्तिकर पाहि मरुत्पुरेश ॥१०॥

शंकर ने क्रोधित हो कर वह यज्ञ नष्ट भ्रष्ट कर दिया और दक्ष का सिर काट दिया। देवों के द्वारा शान्त और प्रसन्न किये जाने पर फिर शंकर ने दक्ष को जीवन दान दिया। आपने फिर उस महान यज्ञ को पूर्ण करवाया। तब कहीं दक्ष को शान्ति मिली। हे प्रशान्तिकर मरुत्पुरेश! वह आप मेरी रक्षा करें।



 ॐ नमो नारायणाय नम: ..



Sunday, September 30, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १५



                           श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १५

 

मतिरिह गुणसक्ता बन्धकृत्तेष्वसक्ता महदनुगमलभ्या भक्तिरेवात्र साध्या
त्वमृतकृदुपरुन्धे भक्तियोगस्तु सक्तिम् । कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥१॥

इस संसार में, विषयों में आसक्त बुद्धि बन्धनकारक होती है और अनासक्त बुद्धि मोक्ष दिलाने वाली होती है। किन्तु भक्ति योग तो आसक्ति को भी रोक देता है। वह भक्ति महान लोगो का अनुगमन करने से प्राप्त होती है। भक्ति ही यहां, इस संसार में, साधना कर के प्राप्त करने योग्य है। इस प्रकार कपिल के रूप में प्रकट हुए आपने देवहुति को कहा।


प्रकृतिमहदहङ्काराश्च मात्राश्च भूता- न्यपि हृदपि दशाक्षी पूरुष: पञ्चविंश: ।
इति विदितविभागो मुच्यतेऽसौ प्रकृत्या कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥२॥

मूल प्रकृति, महत तत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, गन्ध, रूप और रस), पञ्च महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी), मन (अन्त:करण), दस इन्द्रियां, (पांच ज्ञानेन्द्रियां - सुनना, देखना, स्पर्श करना, और स्वाद लेना), (पांच कर्मेन्द्रियां - जिह्वा, हाथ, पांव, जननेन्द्रिय और बाह्येन्द्रिय), और पचीसवां स्वयं पुरुष (आत्मन), इस प्रकार इन पचीस विभागों को जिसने जान लिया है, वह प्रकृति (माया) से मुक्त हो जाता है। कपिल शरीरी आपने इस प्रकार देवहुति को कहा।


प्रकृतिगतगुणौघैर्नाज्यते पूरुषोऽयं यदि तु सजति तस्यां तत् गुणास्तं भजेरन् ।
मदनुभजनतत्त्वालोचनै: साऽप्यपेयात् कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥३॥

प्रकृति के गुण समूह पुरुष को प्रभावित नहीं करते, किन्तु यदि वह स्वयं उन गुणों में आसक्त हो जाता है तब वे गुण उस पुरुष को वशीभूत कर लेते हैं। निरन्तर मेरा भजन करते हुए और सतत मेरे तत्व की जिज्ञासा में लगे हुए पुरुष से प्रकृति हट जाती है। इस प्रकार कपिल शरीरी आपने देवहुति को कहा।


विमलमतिरुपात्तैरासनाद्यैर्मदङ्गं गरुडसमधिरूढं दिव्यभूषायुधाङ्कम् ।
रुचितुलिततमालं शीलयेतानुवेलं कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥४॥

जिस मनुष्य ने आसन आदि सिद्धान्तों का अभ्यास कर के निर्मल बुद्धि को पाया है, उसे चाहिये कि फिर वह मेरे उस विग्रह का निरन्तर ध्यान करे, जो गरूड पर आरूढ है, जिसके अङ्ग दिव्य आभूषणों और आयुधों से विभूषित है, और जो तमाल के समान अतुलनीय कान्तिमान है। इस प्रकार कपिल तनु धारी आपने देव्हुति को कह।


मम गुणगणलीलाकर्णनै: कीर्तनाद्यै- र्मयि सुरसरिदोघप्रख्यचित्तानुवृत्ति: ।
भवति परमभक्ति: सा हि मृत्योर्विजेत्री कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥५॥

मेरे गुणो के समूहॊ के बारे में, और मेरी लीलाओं के विषय में अविरल सुनते रहने से, चित्तवृत्ति गङ्गा के प्रवाह के समान निर्मल हो जाती है। यही परम भक्ति है और यही मृत्यु पर विजय प्राप्त करवाने वाली है। इस प्रकार कपिल रूप में अवतरित आपने देवहुति को उपदेश दिया।


अहह बहुलहिंसासञ्चितार्थै: कुटुम्बं प्रतिदिनमनुपुष्णन् स्त्रीजितो बाललाली ।
विशति हि गृहसक्तो यातनां मय्यभक्त: कपिलतनुरितित्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥६॥

कपिल के रूप में आपने देवहुति को उपदेश दिया कि यह कितने दुख की बात है कि नाना प्रकार की हिंसाओं से अर्जित धन के द्वारा अपने परिवार का भरण पोषण करता हुआ, स्त्री के वशीभूत हो कर बालकों का लालन पालन करता हुआ, गृहासक्ति में पूर्णतया लिप्त हो जाता है। इस प्रकार मेरा अभक्त होकर मनुष्य (नरकादि) यातनाएं झेलता है।


युवतिजठरखिन्नो जातबोधोऽप्यकाण्डे प्रसवगलितबोध: पीडयोल्लङ्घ्य बाल्यम् ।
पुनरपि बत मुह्यत्येव तारुण्यकाले कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥७॥

युवती माता के गर्भ मे पडकर, उस दुख से खिन्न जीव को, यद्यपि ज्ञान का बोध हो जाता है, अकस्मात जन्म लेने के समय वह ज्ञान विलुप्त हो जाता है। फिर अत्यन्त कठिनाइयॊ से बाल्यकाल को पार कर के वह युवावस्था मे पहुंचता है तब भी वह विषयों में सम्मोहित हो जाता है। इस प्रकार कपिल रूप में अवतरित आपने देवहुति को उपदेश दिया।


पितृसुरगणयाजी धार्मिको यो गृहस्थ: स च निपतति काले दक्षिणाध्वोपगामी ।
मयि निहितमकामं कर्म तूदक्पथार्थं कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥८॥

जो मनुष्य पितृगण और देव गण की पूजा अर्चना करता है और धार्मिक प्रवृत्ति का है, वह समयानुसार दक्षिण पथ से जाता है। किन्तु जिसने अपने निष्काम कर्मों को मुझ में अर्पण किया है वह उत्तर पथ से जाने वाला होता है। इस प्रकार कपिल के रूप में आपने देवहुति को उपदेश दिया।


इति सुविदितवेद्यां देव हे देवहूतिं कृतनुतिमनुगृह्य त्वं गतो योगिसङ्घै: ।
विमलमतिरथाऽसौ भक्तियोगेन मुक्ता त्वमपि जनहितार्थं वर्तसे प्रागुदीच्याम् ॥९॥

हे देव! इस प्रकार जानने योग्य ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर देवहुति आपका स्तवन करने लगी। उस पर अनुग्रह कर के आप योगिजनों के साथ चले गये। वह भी भक्ति योग से मुक्त हो गई। जन हित के लिये आप पूर्वोत्तर दिशा में स्थित हो गये।


परम किमु बहूक्त्या त्वत्पदाम्भोजभक्तिं सकलभयविनेत्रीं सर्वकामोपनेत्रीम् ।
वदसि खलु दृढं त्वं तद्विधूयामयान् मे गुरुपवनपुरेश त्वय्युपाधत्स्व भक्तिम् ॥१०॥

हे परम! अधिक कहने से क्या लाभ? आपके चरण कमलों की भक्ति सभी भयों का नाश करने वाली है और सभी अभीष्टों को प्रदान करने वाली है, ऐसा आप निश्चय ही दृढता पूर्वक कहते है। हे गुरुपवनपुरेश! मेरे सभी रोगों कष्टों का विनाश कर के मुझ में अपनी भक्ति का सञ्चार कीजिये।


 ॐ नमो नारायणाय नम: ..

 

Saturday, September 29, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १४







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १४


समनुस्मृततावकाङ्घ्रियुग्म: स मनु: पङ्कजसम्भवाङ्गजन्मा ।
निजमन्तरमन्तरायहीनं चरितं ते कथयन् सुखं निनाय ॥१॥

उन मनु ने, जो कमलयोनि ब्रह्मा के अङ्ग से पैदा हुए थे, और आपके दोनों चरण कमलों का ध्यान करते रहते थे, आपकी लीला कथाओं को कहते हुए, अपने विकारहीन मन्वन्तर का सुख से वहन किया।



समये खलु तत्र कर्दमाख्यो द्रुहिणच्छायभवस्तदीयवाचा ।
धृतसर्गरसो निसर्गरम्यं भगवंस्त्वामयुतं समा: सिषेवे ॥२॥

हे भगवन! उसी समय ब्रह्मा की छाया से उत्पन्न कर्दम नाम के ऋषि ब्रह्मा के ही आदेश से, सृजन करने की इच्छा से, दस हजार वर्षों तक, स्वभावत: सुन्दर आपकी ही तपस्या करते रहे।


गरुडोपरि कालमेघक्रमं विलसत्केलिसरोजपाणिपद्मम् ।
हसितोल्लसिताननं विभो त्वं वपुराविष्कुरुषे स्म कर्दमाय ॥३॥

हे विभो! गरुड पर सवार, काले मेघों के समान श्याम, हस्तकमल में कोमल कमल लिये हुए, मुस्कुराते हुए प्रफुल्ल मुख वाले आपने अपना अति शोभनीय विग्रह कर्दम के लिये प्रकट किया।


स्तुवते पुलकावृताय तस्मै मनुपुत्रीं दयितां नवापि पुत्री: ।
कपिलं च सुतं स्वमेव पश्चात् स्वगतिं चाप्यनुगृह्य निर्गतोऽभू: ॥४॥

रोमाञ्चित हुए स्तुति करते हुए हर्ष और रोमाञ्च से परिपूर्ण कर्दम को आपने पत्नी रूप में मनु की पुत्री को दिया, नौ पुत्रियां और कपिल नामक पुत्र को भी दिया। अन्त में आपने स्वयं को दे दिया और मोक्ष भी प्रदान कर के चले गये।


स मनु: शतरूपया महिष्या गुणवत्या सुतया च देवहूत्या ।
भवदीरितनारदोपदिष्ट: समगात् कर्दममागतिप्रतक्षम् ॥५॥

वह मनु, अपनी रानी शतरूपा और गुणवती पुत्री देवहूति के साथ कर्दम के पास गये जो उन्ही के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। आपकी प्रेरणा से नारद ने उन्हे यह आदेश दिया था।


मनुनोपहृतां च देवहूतिं तरुणीरत्नमवाप्य कर्दमोऽसौ ।
भवदर्चननिवृतोऽपि तस्यां दृढशुश्रूषणया दधौ प्रसादम् ॥६॥

मनु ने तरुणी रत्न देवहूति को कर्दम को उपहार में दे दिया। कर्दम निरन्तर आपकी अर्चना में सन्लग्न रहते थे, फिर भी देवहुति की दृढ सेवा से वे प्रसन्न हो गये।


स पुनस्त्वदुपासनप्रभावा- द्दयिताकामकृते कृते विमाने ।
वनिताकुलसङ्कुलो नवात्मा व्यहरद्देवपथेषु देवहूत्या ॥७॥

तब उसने आपकी अर्चना के प्रभाव से और अपनी पत्नी की कामना की पूर्ति के लिये एक विमान की रचना की। उस विमान में वनिताओं के समूह थे। कर्दम नया स्वरूप धारण कर के उस विमान में देवहुति के संग देव उद्यानों में विचरने लगे।


शतवर्षमथ व्यतीत्य सोऽयं नव कन्या: समवाप्य धन्यरूपा: ।
वनयानसमुद्यतोऽपि कान्ता- हितकृत्त्वज्जननोत्सुको न्यवात्सीत् ॥८॥

इस प्रकार कर्दम ने सौ वर्ष व्यतीत कर दिये और उन्हे नौ रूपवती कन्याओं की प्राप्ति हुई। फिर वन को जाने के लिये तत्पर होते हुए भी, पत्नी के हित के लिये और आपके जन्म की उत्सुकता में वे घर में ही रुके रहे और वन नहीं गये।


निजभर्तृगिरा भवन्निषेवा- निरतायामथ देव देवहूत्याम् ।
कपिलस्त्वमजायथा जनानां प्रथयिष्यन् परमात्मतत्त्वविद्याम् ॥९॥

अपने पति के कहने से देवहुति आपकी सेवा में संलग्न हो गई। तत्पश्चात हे देव! आपने उसके गर्भ से कपिल के रूप में जन्म लिया। आपके इस अवतार का उद्येश्य था कि लोगों में परम तत्व की विद्या प्रकट हो।


वनमेयुषि कर्दमे प्रसन्ने मतसर्वस्वमुपादिशन् जनन्यै ।
कपिलात्मक वायुमन्दिरेश त्वरितं त्वं परिपाहि मां गदौघात् ॥१०॥

प्रसन्न चित्त कर्दम वन को चले गये। तब आपने अपनी माता को सम्पूर्ण सिद्धान्तो का उपदेश दिया। हे कपिलात्मक वायु मन्दिर के ईश्वर! समस्त रोग समूहों से मेरी शीघ्रता से रक्षा करें।


ॐ नमो नारायणाय नम: ..

Friday, September 28, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १३







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १३



हिरण्याक्षं तावद्वरद भवदन्वेषणपरं चरन्तं सांवर्ते पयसि निजजङ्घापरिमिते ।
भवद्भक्तो गत्वा कपटपटुधीर्नारदमुनि: शनैरूचे नन्दन् दनुजमपि निन्दंस्तव बलम् ॥१॥

असुर हिरण्याक्ष स्वयं की जङ्घा के बराबर प्रलय जल में विचरते हुए आपको खोजने में संलग्न था। आपके भक्त, चतुर बुद्धि नारद मुनि ने जाकर उसको नम्रता पूर्वक आपके बल की निन्दा करते हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा -


स मायावी विष्णुर्हरति भवदीयां वसुमतीं प्रभो कष्टं कष्टं किमिदमिति तेनाभिगदित: ।
नदन् क्वासौ क्वासविति स मुनिना दर्शितपथो भवन्तं सम्प्रापद्धरणिधरमुद्यन्तमुदकात् ॥२॥

हे वन्दनीय दैत्य! खेद है, खेद है, वह वराह रूपी मायावी विष्णु आपकी पृथ्वी को चुरा रहा है।' इस प्रकार नारद के द्वारा कहे जाने पर वह 'कहां है कहां है वह (विष्णु)' इस प्रकार चिल्लाने लगा। फिर नारद मुनि के रास्ता दिखाए जाने पर वह, पृथ्वी को सम्भाले हुए जल से निकलते हुए आपके पास पहुंचा।


अहो आरण्योऽयं मृग इति हसन्तं बहुतरै- र्दुरुक्तैर्विध्यन्तं दितिसुतमवज्ञाय भगवन् ।
महीं दृष्ट्वा दंष्ट्राशिरसि चकितां स्वेन महसा पयोधावाधाय प्रसभमुदयुङ्क्था मृधविधौ ॥३॥

हे भगवन! वह असुर हंसते हुए बोला ' अरे यह तो मात्र एक जङ्गली जानवर है" ऐसे और अनेक प्रकार के कटु शब्द बोल कर वह दैत्य आपकी भर्त्सना करने लगा। आपने देखा कि पृथ्वी दांतों की नोंकों पर रखी हुई कम्पायमान हो रही है, तब दैत्य की अवहेलना कर के आपने अपनी महिमा से पृथ्वी को समुद्र के ऊपर रख दिया और तुरन्त बलपूर्वक युद्ध करने के लिये प्रस्तुत हो गये।


गदापाणौ दैत्ये त्वमपि हि गृहीतोन्नतगदो नियुद्धेन क्रीडन् घटघटरवोद्घुष्टवियता ।
रणालोकौत्सुक्यान्मिलति सुरसङ्घे द्रुतममुं निरुन्ध्या: सन्ध्यात: प्रथममिति धात्रा जगदिषे ॥४॥

दैत्य के हाथ में गदा थी इसलिये आपने भी गदा ले कर उसे ऊपर उठा लिया और युद्ध लीला करने लगे। गदाओं के टकराने से होने वाले घटघटाहट रव से आकाश के गुंजायमान होने पर देव गण युद्ध देखने की उत्सुकता से एकत्रित हो गये। तब ब्रह्मा ने आपसे कहा कि 'सन्ध्या होने से पहले ही आप उस दैत्य को रोक कर काबू में कर लें'।


 गदोन्मर्दे तस्मिंस्तव खलु गदायां दितिभुवो गदाघाताद्भूमौ झटिति पतितायामहह! भो: ।
मृदुस्मेरास्यस्त्वं दनुजकुलनिर्मूलनचणं महाचक्रं स्मृत्वा करभुवि दधानो रुरुचिषे ॥५॥

गदाओं के उस युद्ध में, असुर के द्वारा किये हुए प्रहार से आपकी गदा धरती पर गिर गई। आश्चर्य है कि आपका मुख मधुर मुस्कान से खिल गया। तब आपने असुरॊं के कुल का संहार करने में पटु महान सुदर्शन चक्र का स्मरण किया और उसे हथेली में ले कर सुशोभित हुए।


तत: शूलं कालप्रतिमरुषि दैत्ये विसृजति त्वयि छिन्दत्येनत् करकलितचक्रप्रहरणात् ।
समारुष्टो मुष्ट्या स खलु वितुदंस्त्वां समतनोत् गलन्माये मायास्त्वयि किल जगन्मोहनकरी: ॥६॥

कालाग्नि के समान कुपित असुर ने आपके ऊपर त्रिशूल फेंका जिसे आपने अपने हाथ में लिये हुए चक्र से काट दिया। इस पर अत्यन्त क्रोधित हुए दैत्य ने आप पर मुक्कों का प्रहार करना आरम्भ कर दिया और मायाओं का प्रयोग करने लगा जो मायायें जगत को तो मोहित कर देती हैं किन्तु माया से परे आप पर कोई प्रभाव नहीं डालतीं।


भवच्चक्रज्योतिष्कणलवनिपातेन विधुते ततो मायाचक्रे विततघनरोषान्धमनसम् ।
गरिष्ठाभिर्मुष्टिप्रहृतिभिरभिघ्नन्तमसुरं स्वपादाङ्गुष्ठेन श्रवणपदमूले निरवधी: ॥७॥

आपके सुदर्शन चक्र की ज्योति के अणुकण के पडने से माया का चक्र विनष्ट हो गया। अत्यधिक क्रोध से अन्धे हुए मन वाला वह असुर आपके ऊपर घोर मुक्कों का प्रहार कर रहा था। आपने अपने पैर के अङ्गूठे से उसके कर्णमूल पर प्रहार किया।


 महाकाय: सो॓ऽयं तव चरणपातप्रमथितो गलद्रक्तो वक्त्रादपतदृषिभि: श्लाघितहति: ।
तदा त्वामुद्दामप्रमदभरविद्योतिहृदया मुनीन्द्रा: सान्द्राभि: स्तुतिभिरनुवन्नध्वरतनुम् ॥८॥

विराट शरीर वाला वह दैत्य मुख से रक्त वमन करता हुआ गिर पडा। ऋषियों ने इस वध की प्रशंसा की। हे यज्ञपुरुष! अत्यन्त हर्ष से प्रफुल्लित हृदयवाले मुनिगण गम्भीर स्तुतियों के द्वारा आपका स्तवन करने लगे।


त्वचि छन्दो रोमस्वपि कुशगणश्चक्षुषि घृतं चतुर्होतारोऽङ्घ्रौ स्रुगपि वदने चोदर इडा ।
ग्रहा जिह्वायां ते परपुरुष कर्णे च चमसा विभो सोमो वीर्यं वरद गलदेशेऽप्युपसद: ॥९॥

हे परम पुरुष! आपकी त्वचा में छन्द स्थित हैं। रोमों में कुशा समूह हैं, और नेत्रों में घी है। चारों होता आपके चरणों में हैं। मुख में स्रुक और उदर में इडा (पुरोडाश रखने का पात्र) का स्थान है। आपकी जिह्वा में ग्रह (सोमरस रखने का पात्र) और कानों में चमस (भोजन सामग्री के पात्र) स्थित हैं। हे विभो! सोमरस आपका वीर्य है। हे वरद! उपसद (इष्टियां) आपके कण्ठ में स्थित हैं।


मुनीन्द्रैरित्यादिस्तवनमुखरैर्मोदितमना महीयस्या मूर्त्या विमलतरकीर्त्या च विलसन् ।
स्वधिष्ण्यं सम्प्राप्त: सुखरसविहारी मधुरिपो निरुन्ध्या रोगं मे सकलमपि वातालयपते ॥१०॥

हे स्वानन्द विहारी! इस प्रकार मुनियों के द्वारा गाई गई मन को प्रसन्न करने वाली अनेक स्तुतियों के उच्चारण से प्रसन्न चित्त आप अपने निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये। हे मधुरिपु! हे वातालयपति! मेरे भी समस्त रोगों का विनाश कीजिये।



ॐ नमो नारायणाय नम: ..

Thursday, September 27, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १२





                            श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १२

स्वायम्भुवो मनुरथो जनसर्गशीलो दृष्ट्वा महीमसमये सलिले निमग्नाम् ।
स्रष्टारमाप शरणं भवदङ्घ्रिसेवा- तुष्टाशयं मुनिजनै: सह सत्यलोके ॥१॥
 

स्वयंभुव मनु ने जो प्रजा प्रजनन में व्यस्त थे, देखा कि पृथ्वी असमय में जल में निमग्न है। वे अन्य मुनिजनों के साथ ब्रह्माकी शरण में सत्यलोक पहुंचे। उस समय ब्रह्मा का मन आपके चरण कमलों की सेवा करने से सन्तुष्ट था।



कष्टं प्रजा: सृजति मय्यवनिर्निमग्ना स्थानं सरोजभव कल्पय तत् प्रजानाम् ।
इत्येवमेष कथितो मनुना स्वयंभू- रम्भोरुहाक्ष तव पादयुगं व्यचिन्तीत् ॥ २ ॥
 

स्वायम्भुव मनु ने कहा कि " कष्ट की बात है कि जब मै प्रजा का सृजन कर रहा था, मैने पृथ्वी को जल मग्न देखा। अतएव हे ब्रह्मा! आप प्रजा के लिये स्थान की रचना कीजिये।' हे कमलनयन! मनु के ऐसा कहने पर ब्रह्मा आपके चरण युगल का ध्यान करने लगे।



हा हा विभो जलमहं न्यपिबं पुरस्ता- दद्यापि मज्जति मही किमहं करोमि ।
इत्थं त्वदङ्घ्रियुगलं शरणं यतोऽस्य नासापुटात् समभव: शिशुकोलरूपी ।३॥
 

 'हे भगवन! आश्चर्य और दुख की बात है कि मैने पहले भी समस्त जल पी लिया था फिर भी धरा जल मग्न ही है। मैं क्या करूं।' तब आपके चरण द्वय की शरण गये हुए ब्रह्मा के नासापुट से आप वराह शिशु के रूप में प्रकट हुए।



अङ्गुष्ठमात्रवपुरुत्पतित: पुरस्तात् भोयोऽथ कुम्भिसदृश: समजृम्भथास्त्वम् ।
अभ्रे तथाविधमुदीक्ष्य भवन्तमुच्चै - र्विस्मेरतां विधिरगात् सह सूनुभि: स्वै: ॥४॥
 

पहले आप अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण में उत्पन्न हुए, फिर हाथी के समान बढ गये। आपको इस प्रकार देख कर आकाश में स्थित ब्रह्मा अपने पुत्रों (मरीचि आदि) के सङ्ग अत्यन्त विस्मित हो गये।



कोऽसावचिन्त्यमहिमा किटिरुत्थितो मे नासापुटात् किमु भवेदजितस्य माया ।
इत्थं विचिन्तयति धातरि शैलमात्र: सद्यो भवन् किल जगर्जिथ घोरघोरम् ॥५॥
 

ब्रह्मा आश्चर्य चकित हो कर विचार करने लगे कि वह अवर्णनीय महिमा वाला सूकर कौन था जो उनके नासिका पुट से निकल आया था, और क्या यह भगवान की माया थी। उसी समय तुरन्त आप पर्वताकार हो कर भयंकर गर्जना करने लगे।



तं ते निनादमुपकर्ण्य जनस्तप:स्था: सत्यस्थिताश्च मुनयो नुनुवुर्भवन्तम् ।
तत्स्तोत्रहर्षुलमना: परिणद्य भूय- स्तोयाशयं विपुलमूर्तिरवातरस्त्वम् ॥६॥
 

आपके उस भयंकर गर्जन को सुन कर जनलोक, तप:लोक एवं सत्य लोक में स्थित मुनिजन आपका स्तवन करने लगे। स्तवन से प्रसन्न हो कर आप फिर भीषण गर्जना करते हुए विशाल रूप हो कर प्रलय जलाब्धि में उतर गये।



ऊर्ध्वप्रसारिपरिधूम्रविधूतरोमा प्रोत्क्षिप्तवालधिरवाङ्मुखघोरघोण: ।
तूर्णप्रदीर्णजलद: परिघूर्णदक्ष्णा स्तोतृन् मुनीन् शिशिरयन्नवतेरिथ त्वम् ॥७॥
 

उस समय आपका स्वरूप इस प्रकार था - काले और लोहित रोम ऊपर की ओर उठे हुए थे, और पूंछ भी ऊपर की ओर उठी हुई थी, भयंकर नथुने नीचे की ओर झुके हुए थे और अनायास ही बादलों को छिन्न भिन्न कर देने वाले नेत्र चारो ओर घूम रहे थे। आपके इस स्वरूप को देख कर स्तुति करते हुए मुनिजन को रोमञ्चित करते हुए आप कूद पडे।



अन्तर्जलं तदनुसंकुलनक्रचक्रं भ्राम्यत्तिमिङ्गिलकुलं कलुषोर्मिमालम् ।
आविश्य भीषणरवेण रसातलस्था - नाकम्पयन् वसुमतीमगवेषयस्त्वम् ॥८॥

तब फिर उस जल में जिसके भीतर ग्राह के समूह स्थित थे और तिमिङ्गल मत्स्य के कुल इधर उधर घूम रहे थे, आप भयंकर शब्द करते हुए प्रवेश कर गये। इससे वह जल धूमिल हो गया, और आप रसातल में स्थित जन्तुओं को कम्पायमान करते हुए पृथ्वी को खोजने लगे।



दृष्ट्वाऽथ दैत्यहतकेन रसातलान्ते संवेशितां झटिति कूटकिटिर्विभो त्वम् ।
आपातुकानविगणय्य सुरारिखेटान् दंष्ट्राङ्कुरेण वसुधामदधा: सलीलम् ॥९॥
 

तब आपने देखा कि दुष्ट असुरों के द्वारा पृथ्वी रसातल के अन्त में छुपाई हुई है। हे भगवन! मायावी सूकर स्वरूप आपने शीघ्र ही आक्रमक नीच असुरों की अवहेलना करते हुए, पृथ्वी को दांत की नोक पर उठा लिया।



अभ्युद्धरन्नथ धरां दशनाग्रलग्न मुस्ताङ्कुराङ्कित इवाधिकपीवरात्मा ।
उद्धूतघोरसलिलाज्जलधेरुदञ्चन्क्रीडावराहवपुरीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
 

हे ईश्वर! आप फिर उस समुद्र के घोर जलों से पृथ्वी का उद्धार करते हुए बाहर निकले। पृथ्वी आपके दंष्टाग्र पर वैसे ही शोभायमान हो रही थी जैसे सामान्य सूकर के दंष्टाग्र पर मुस्त नामक दूर्वा शोभायमान होती है। हे लीला सूकर शरीर धारी ईश्वर! रोगों से मेरी रक्षा करें।


ॐ नमो नारायणाय नम:

Wednesday, September 26, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ११







श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) * - दशक - ११ 



क्रमेण सर्गे परिवर्धमाने कदापि दिव्या: सनकादयस्ते ।
भवद्विलोकाय विकुण्ठलोकं प्रपेदिरे मारुतमन्दिरेश ॥१॥

हे मारुतमन्दिरेश! क्रम से प्रजनन की वृद्धि होने पर, वे दिव्य सनकादि किसी समय आपके दर्शन के लिये वैकुण्ठ लोक पहुंचे।


मनोज्ञनैश्रेयसकाननाद्यै- रनेकवापीमणिमन्दिरैश्च ।
अनोपमं तं भवतो निकेतं मुनीश्वरा: प्रापुरतीतकक्ष्या: ॥२॥

नैश्रेयस कानन आदि काननो, अनेक बावलियों और मणि जडित मन्दिरों से मनोहर, छ: कक्षों को पार करके वे मुनिगण आपके उस अनुपम निवास स्थान को पहुंचे।


भवद्दिद्दृक्षून्भवनं विविक्षून् द्वा:स्थौ जयस्तान् विजयोऽप्यरुन्धाम् ।
तेषां च चित्ते पदमाप कोप: सर्वं भवत्प्रेरणयैव भूमन् ॥३॥

हे भूमन! वे सनकादि आपके दर्शन के इच्छुक थे इसीलिये आपके भवन में प्रवेश करना चाहते थे। किन्तु द्वार पर जय और विजय ने उन्हे रोक लिया। तब उनके मन में क्रोध उत्पन्न हो गया। यह सब आपकी ही प्रेरणा से हुआ।


वैकुण्ठलोकानुचितप्रचेष्टौ कष्टौ युवां दैत्यगतिं भजेतम् ।
इति प्रशप्तौ भवदाश्रयौ तौ हरिस्मृतिर्नोऽस्त्विति नेमतुस्तान् ॥४॥

सनकादि ने उनको कहा कि उनका व्यवहार वैकुण्ठ लोक के अनुचित था। अतएव उन्होने शाप दिया कि वे दोनों दुष्ट दैत्य की गति को प्राप्त करें। आपके आश्रित उन दोनों ने प्रार्थना की कि उन्हे सदा भगवत स्मृति बनी रहे।


तदेतदाज्ञाय भवानवाप्त: सहैव लक्ष्म्या बहिरम्बुजाक्ष ।
खगेश्वरांसार्पितचारुबाहु- रानन्दयंस्तानभिराममूर्त्या ॥५॥

यह सब जान कर आप लक्ष्मी के साथ बाहर पहुंचे। हे कमलनयन! आपने गरुड के कन्धे पर अपनी सुन्दर भुजा रखी हुई थी। अपनी मनोहर छबि दिखा कर आपने सनकादि को बहुत आनन्दित किया।


प्रसाद्य गीर्भि: स्तुवतो मुनीन्द्रा- ननन्यनाथावथ पार्षदौ तौ ।
संरम्भयोगेन भवैस्त्रिभिर्मा- मुपेतमित्यात्तकृपं न्यगादी: ॥६॥

उन स्तुति करते हुए मुनीन्द्रों को आपने अपनी वाणी के द्वारा प्रसन्न किया। उन दोनों सेवकों को, जिनके और कोई आश्रय नहीं थे, कृपा से पूर्ण होकर आपने कहा कि उन्हे तीन जन्मों तक क्रोध से कठोर उस श्राप को सहना होगा, तत्पश्चात वे लोग आपको प्राप्त कर लेंगे।


त्वदीयभृत्यावथ काश्यपात्तौ सुरारिवीरावुदितौ दितौ द्वौ ।
सन्ध्यासमुत्पादनकष्टचेष्टौ यमौ च लोकस्य यमाविवान्यौ ॥७॥

तदनन्तर आपके उन दोनों सेवकों ने कश्यप और दिति के दो असुर वीर पुत्रों के रूप में जन्म लिया। सन्ध्या के समय गर्भ में आने के कारण वे अति क्रूर स्वभाव के थे। वे दोनों जुडवां भाई लोकों के लिये मानों दूसरे यम-काल ही थे।


हिरण्यपूर्व: कशिपु: किलैक: परो हिरण्याक्ष इति प्रतीत: ।
उभौ भवन्नाथमशेषलोकं रुषा न्यरुन्धां निजवासनान्धौ ॥८॥

एक का नाम हिरण्यकशिपु था और दूसरा हिरण्याक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सम्पूर्ण लोक को जिसके आप ही स्वामी हैं, वे दोनों अपनी वासनाओं से अन्धे हो कर पीडित करते रहते थे।


तयोर्हिरण्याक्षमहासुरेन्द्रो रणाय धावन्ननवाप्तवैरी ।
भवत्प्रियां क्ष्मां सलिले निमज्य चचार गर्वाद्विनदन् गदावान् ॥९॥

उनमें से महा असुर हिरण्याक्ष युद्ध के लिये लालायित होकर ललकारता हुआ घूमता फिरा। कोई योग्य शत्रु को न पा कर उसने आपकी प्रिया पृथ्वी को जल में डुबो दिया, और गदा ले कर गर्व से दहाडता हुआ घूमने लगा।


ततो जलेशात् सदृशं भवन्तं निशम्य बभ्राम गवेषयंस्त्वाम् ।
भक्तैकदृश्य: स कृपानिधे त्वं निरुन्धि रोगान् मरुदालयेश ॥१०।

तब जलों के देवता वरुण से यह जान कर कि आप ही उसके सदृश हैं, वह रुक गया, और आपको खोजता हुआ घूमने लगा। केवल भक्तों को दृश्यमान, हे करुणानिधि, हे मरुदालयेश! ऐसे आप मेरे रोगों का विनाश करें।


ॐ नमो नारायणाय ..

Friday, September 21, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १०





श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १०


वैकुण्ठ वर्धितबलोऽथ भवत्प्रसादा-
दम्भोजयोनिरसृजत् किल जीवदेहान् ।
स्थास्नूनि भूरुहमयानि तथा तिरश्चां
जातिं मनुष्यनिवहानपि देवभेदान् ॥१॥
 

हे वैकुण्ठ अधिष्ठाता! फिर वर्धित बल वाले ब्रह्मा ने आपकी ही कृपा से जीवों
के शरीरों की रचना की। उन्होने स्थावर (भूमि आदि), भूमि पर पैदा होने वाले
(वृक्षादि) की, तिर्यक जाति (पशु पक्षि आदि) की, मनुष्य समूहों की भी और
विभिन्न देवों की भी रचना की।



मिथ्याग्रहास्मिमतिरागविकोपभीति-
रज्ञानवृत्तिमिति पञ्चविधां स सृष्ट्वा ।
उद्दामतामसपदार्थविधानदून -
स्तेने त्वदीयचरणस्मरणं विशुद्ध्यै ॥२॥

तत्पश्चात् ब्रह्मा ने झूठा अभिमान, अहं भाव, आसक्ति, क्रोध और डर ऐसी पांच
प्रकार की अज्ञान की वृत्तियों का निर्माण किया। इन अत्यन्त तामसिक पदार्थों
की रचना करके उनका मन खिन्न हो गया। तदन्तर विशुद्धि के लिये वे आपके चरणों के
ध्यान में प्रवृत्त हुए।



तावत् ससर्ज मनसा सनकं सनन्दं
भूय: सनातनमुनिं च सनत्कुमारम् ।
ते सृष्टिकर्मणि तु तेन नियुज्यमाना-
स्त्वत्पादभक्तिरसिका जगृहुर्न वाणीम् ॥३॥
 

तब ब्रह्मा ने मनसे सनक और सनन्द का सृजन किया, और फिर सनातन मुनि और
सनत्कुमार का सृजन किया। ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त किये
जाने पर भी उन्होने आज्ञा का पालन नहीं किया क्योंकि वे आपके चरणों की भक्ति
के रसिक थे।



तावत् प्रकोपमुदितं प्रतिरुन्धतोऽस्य
भ्रूमध्यतोऽजनि मृडो भवदेकदेश: ।
नामानि मे कुरु पदानि च हा विरिञ्चे-
त्यादौ रुरोद किल तेन स रुद्रनामा ॥४॥
 

अपने क्रोध का संवरण करने के कारण ब्रह्मा के भ्रूमध्य से मृड ने जन्म लिया जो
आपके ही अंश हैं। उन्होंने प्रारम्भ में ही रो कर कहा कि "मुझे नाम दो और मेरे
निवास निर्धारित करो", इसी कारण उनका नाम रुद्र हुआ।



एकादशाह्वयतया च विभिन्नरूपं
रुद्रं विधाय दयिता वनिताश्च दत्वा ।
तावन्त्यदत्त च पदानि भवत्प्रणुन्न:
प्राह प्रजाविरचनाय च सादरं तम् ॥५॥


तब ब्रह्मा ने रुद्र को विभिन्न रूपों से ग्यारह नाम दिये और ग्यारह प्रिय
पत्नियां भी दीं और उतने ही निवास स्थान दिये। आपके द्वारा प्रेरित हो कर
ब्रह्मा ने आदर सहित उनसे निवेदन किया कि वे प्रजा की रचना करें।



रुद्राभिसृष्टभयदाकृतिरुद्रसंघ-
सम्पूर्यमाणभुवनत्रयभीतचेता: ।
मा मा प्रजा: सृज तपश्चर मङ्गलाये-
त्याचष्ट तं कमलभूर्भवदीरितात्मा ॥६॥
 

रुद्र भयानक आकृति वाले रुद्रो की रचना करने लगे जो त्रिभुवन में व्याप्त होने
लगे। भयभीत ब्रह्मा ने आपसे प्रेरित हो कर रुद्र से कहा कि वे और सृष्टि न
करें बल्कि लोक कल्याण के लिये तप करें।



तस्याथ सर्गरसिकस्य मरीचिरत्रि-
स्तत्राङिगरा: क्रतुमुनि: पुलह: पुलस्त्य: ।
अङ्गादजायत भृगुश्च वसिष्ठदक्षौ
श्रीनारदश्च भगवन् भवदंघ्रिदास: ॥७॥
 

सृष्टि रचना के इच्छुक ब्रह्मा के अङ्गों से तब मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा,
क्रतुमुनि, पुलह, पुलस्त्य, भृगु, वसिष्ट, दक्ष और नारद उत्पन्न हुए। हे भगवन!
ये सब आपके चरणों के दास हैं।



धर्मादिकानभिसृजन्नथ कर्दमं च
वाणीं विधाय विधिरङ्गजसंकुलोऽभूत् ।
त्वद्बोधितै: सनकदक्षमुखैस्तनूजै-
रुद्बोधितश्च विरराम तमो विमुञ्चन् ॥८॥
 

ब्रह्मा ने फिर धर्मादि देवों की और कर्दम प्रजापति की रचना की। तदन्तर
सरस्वती की रचना करके वे काम के वशीभूत हो गये। आपके द्वारा प्रेरित सनक दक्ष
और सब पुत्रों के समझाने पर वे रुक गये और तामसिक विचार छोड दिए।



वेदान् पुराणनिवहानपि सर्वविद्या:
कुर्वन् निजाननगणाच्चतुराननोऽसौ ।
पुत्रेषु तेषु विनिधाय स सर्गवृद्धि-
मप्राप्नुवंस्तव पदाम्बुजमाश्रितोभूत् ॥९॥
 

उन चतुर्मुख ब्रह्मा ने अपने चारो मुखों से वेदों, पुराण समूहों तथा समस्त
विद्याओं को प्रकट कर के अपने उन पुत्रों में स्थापित कर दिया। फिर प्रजा की
और अधिक वृद्धि न देख कर, उन्होने आपके चरण कमलों का आश्रय लिया।


जानन्नुपायमथ देहमजो विभज्य
स्रीपुंसभावमभजन्मनुतद्वधूभ्याम् ।
ताभ्यां च मानुषकुलानि विवर्धयंस्त्वं
गोविन्द मारुतपुरेश निरुन्धि रोगान् ॥१०॥
 

प्रजावृद्धि के उपाय को जानते हुए फिर, ब्रह्मा ने अपने शरीर को दो भागों में
विभक्त किया और स्त्री और पुरुष के भाव को प्राप्त हो गए। वे भाग मनु और उनकी
पत्नी शतरूपा थे। उन दोनों से मनुष्य कुल की वृद्धि करते हुए, हे गोविन्द! हे
मरुतपुरेश! मेरे रोगों का विनाश कीजिये।


ॐ नमो नारायणाय नम:

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ९

श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ९


स्थितस्स कमलोद्भवस्तव हि नाभिपङ्केरुहे
कुत: स्विदिदमम्बुधावुदितमित्यनालोकयन् ।
तदीक्षणकुतूहलात् प्रतिदिशं विवृत्तानन-
श्चतुर्वदनतामगाद्विकसदष्टदृष्ट्यम्बुजाम् ॥१॥
 

वह कमलभू ब्रह्मा आप ही के नाभि कमल पर स्थित, सोचने लगे कि यह कमल इस एकार्णव
में कहां से उत्पन्न हुआ? यह जानने की जिज्ञासा से उन्होने चारो दिशाओं में
मुंह घुमाया। इससे वे चार मुख वाले हो गये जिनमें आठ नेत्र कमल विकसित हो रहे
थे।



महार्णवविघूर्णितं कमलमेव तत्केवलं
विलोक्य तदुपाश्रयं तव तनुं तु नालोकयन् ।
क एष कमलोदरे महति निस्सहायो ह्यहं
कुत: स्विदिदम्बुजं समजनीति चिन्तामगात् ॥२॥
 

उस महार्णव में उस कमल को ही लहराते हुए देख कर और उसके आधारभूत आपके शरीर को
न देख कर, ब्रह्मा चिन्ता में पड गये कि इस महान कमल के उदर में वे अकेले थे
और वह कमल कहां से आया तथा किसने उसे पैदा किया।



अमुष्य हि सरोरुह: किमपि कारणं सम्भ्वे-
दिति स्म कृतनिश्चयस्स खलु नालरन्ध्राध्वना ।
स्वयोगबलविद्यया समवरूढवान् प्रौढधी -
स्त्वदीयमतिमोहनं न तु कलेवरं दृष्टवान् ॥३॥
 

अवश्य ही इस कमल के प्रकट होने का कोई तो कारण होगा' -इस प्रकार निश्चय करके
वे परिपक्व बुद्धि वाले ब्रह्मा अपनी योग विद्या के बल से उस कमल के नाल के
छिद्र से नीचे उतर आये। किन्तु वे आपके अति मनोहर कलेवर को नहीं देख पाये।



तत: सकलनालिकाविवरमार्गगो मार्गयन्
प्रयस्य शतवत्सरं किमपि नैव संदृष्टवान् ।
निवृत्य कमलोदरे सुखनिषण्ण एकाग्रधी:
समाधिबलमादधे भवदनुग्रहैकाग्रही ॥४॥
 

तब ब्रह्मा जी ने एक सौ दिव्य वर्ष तक कमल नाल के सभी छिद्रों का प्रयत्न
पूर्वक अन्वेषण किया। किन्तु वे कहीं भी कुछ भी नहीं देख पाये। वे क्मलनाल के
रास्ते से फिर कमल के अन्दर आ कर सुखपूर्वक बैठ गये। फिर उन्होंने एकाग्र
चित्त से एकमात्र आपकी अनुकम्पा के आग्रही हो कर समाधि बल का आश्रय लिया।



शतेन परिवत्सरैर्दृढसमाधिबन्धोल्लसत्-
प्रबोधविशदीकृत: स खलु पद्मिनीसम्भव: ।
अदृष्टचरमद्भुतं तव हि रूपमन्तर्दृशा
व्यचष्ट परितुष्टधीर्भुजगभोगभागाश्रयम् ॥५॥
 

कमलजन्मा ब्रह्मा सैकडों दिव्य वर्षों तक दृढ समाधि में स्थित रहे। उस समाधि
के तेज से उनमें ज्ञान का प्रकाश प्रफुल्लित हुआ। तब, सामान्य जनों के लिये
अदृश्य, आपका अद्भुत रूप उन्होंने अन्तर्दृष्टि द्वारा देखा, जो शेषनाग के
शरीर के भाग का आश्रय लिये हुए थे। वह रूप देख कर ब्रह्मा अत्यन्त सन्तुष्ट हो
गए।



किरीटमुकुटोल्लसत्कटकहारकेयूरयुङ्-
मणिस्फुरितमेखलं सुपरिवीतपीताम्बरम् ।
कलायकुसुमप्रभं गलतलोल्लसत्कौस्तुभं
वपुस्तदयि भावये कमलजन्मे दर्शितम् ॥६॥
 

हे भगवन! किरीट और मुकुट से सुशोभित, कङ्गन हार और बाजूबन्द से युक्त, मणियों
से शोभायमान करधनी एवं सुचारु रूप से पहना हुआ पीताम्बर वाला, कलाय पुष्पों के
समान कोमल, गले में कौस्तुभ पहने हुए, आपके उस सुन्दर विग्रह का मैं ध्यान
करता हूं जो आपने ब्रह्मा जी को दिखाया।



श्रुतिप्रकरदर्शितप्रचुरवैभव श्रीपते
हरे जय जय प्रभो पदमुपैषि दिष्ट्या दृशो: ।
कुरुष्व धियमाशु मे भुवननिर्मितौ कर्मठा-
मिति द्रुहिणवर्णितस्वगुणबृंहिमा पाहि माम् ॥७॥
 

"हे लक्ष्मीपते! शास्त्रों के विभिन्न वाक्यों में आपका अनन्त वैभव प्रतिपादित
है। हे हरे! आपकी जय हो। हे प्रभू! सौभाग्य से आप मुझे दृष्टिगोचर हुए हैं।
कृपा करिये कि शीघ्र ही मेरे मन में सृष्टि रचना की क्षमता उत्पन्न हो।" इस
प्रकार ब्रह्मा ने आपके गुणों के समूहों का वर्णन किया। ऐसे आप मेरी रक्षा
करें।



लभस्व भुवनत्रयीरचनदक्षतामक्षतां
गृहाण मदनुग्रहं कुरु तपश्च भूयो विधे ।
भवत्वखिलसाधनी मयि च भक्तिरत्युत्कटे-
त्युदीर्य गिरमादधा मुदितचेतसं वेधसम् ॥८॥
 

हे ब्रह्मन! आप फिर से तप करें और आपको तीनों भुवनों की रचना की अमिट दक्षता
प्राप्त हो। और मेरी कृपा से आपको मुझमें अनन्त सिद्धियों वाली तीव्रतम भक्ति
प्राप्त हो"। यह वचन कह कर (आपने) ब्रह्मा का चित्त उल्लासपूर्ण कर दिया।



शतं कृततपास्तत: स खलु दिव्यसंवत्सरा-
नवाप्य च तपोबलं मतिबलं च पूर्वाधिकम् ।
उदीक्ष्य किल कम्पितं पयसि पङ्कजं वायुना
भवद्बलविजृम्भित: पवनपाथसी पीतवान् ॥९॥
 

ब्रह्मा ने एक सौ दिव्य वर्षों तक तप किया। जिससे उन्हे पहले से अधिक तपोबल और
बुद्धिबल प्राप्त हुआ, और उन्होंने (एकार्णव के) जल में वायु से लहराता हुआ एक
कमल देखा। आपके बल से परिपूरित ब्रह्मा ने वायु और जल को पी लिया।



तवैव कृपया पुनस्सरसिजेन तेनैव स:
प्रकल्प्य भुवनत्रयीं प्रववृते प्रजानिर्मितौ ।
तथाविधकृपाभरो गुरुमरुत्पुराधीश्वर
त्वमाशु परिपाहि मां गुरुदयोक्षितैरीक्षितै: ॥१०॥
 

आपकी ही कृपा से ब्रह्मा ने उसी कमल के द्वारा त्रिभुवन की कल्पना की और प्रजा
के निर्माण में प्रवृत्त हुए। ऐसी कृपा से परिपूर्ण हे गुरुवायुरधीश्वर! महती
दया से आर्द्र अपने दृष्टिपातॊं से शीघ्र ही मेरी रक्षा करें।


 
ॐ नमो नारायणाय नम:

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ८

श्रीमन् नारायणीम्  *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ८ 

एवं तावत् प्राकृतप्रक्षयान्ते
ब्राह्मे कल्पे ह्यादिमे लब्धजन्मा ।
ब्रह्मा भूयस्त्वत्त एवाप्य वेदान्
सृष्टिं चक्रे पूर्वकल्पोपमानाम् ॥१॥
 

तब, इस प्रकार, प्राकृत प्रलय के अन्त में जो प्रथम ब्राह्म कल्प था, ब्रह्मा
ने जन्म पाकर, आप ही से फिर से वेदों का ज्ञान पा कर, पहले के कल्प के ही समान
सृष्टि की रचना की।



सोऽयं चतुर्युगसहस्रमितान्यहानि
तावन्मिताश्च रजनीर्बहुशो निनाय ।
निद्रात्यसौ त्वयि निलीय समं स्वसृष्टै-
र्नैमित्तिकप्रलयमाहुरतोऽस्य रात्रिम् ॥२॥
 

उन ब्रह्मा का एक दिन एक चतुर्युग की अवधी वाला और एक रात्रि उतनी ही अवधी
वाली होती है। इस प्रकार बहुत से दिन और रात्रियां व्यतीत कर के , वे निद्रा
के वशीभूत हो कर, स्व रचित सृष्टि के साथ आप में ही विलीन हो जाते हैं।
ब्रह्मा की यह रात्रि नैमित्तिक प्रलय कहलाती है।



अस्मादृशां पुनरहर्मुखकृत्यतुल्यां
सृष्टिं करोत्यनुदिनं स भवत्प्रसादात् ।
प्राग्ब्राह्मकल्पजनुषां च परायुषां तु
सुप्तप्रबोधनसमास्ति तदाऽपि सृष्टि: ॥३॥
 

जिस प्रकार हम लोग हर दिन की प्रात:कालीन क्रियायें करते हैं आपकी कृपा से,
उसी प्रकार ब्रह्मा हर दिन सृष्टि की रचना करते हैं। ब्राह्म कल्प के पहले
उत्पन्न हुए जन अथवा अनन्त आयु वाले जनों के लिये तो फिर भी यह सृष्टि सो कर
जागने के समान ही है।



पञ्चाशदब्दमधुना स्ववयोर्धरूप-
मेकं परार्धमतिवृत्य हि वर्ततेऽसौ ।
तत्रान्त्यरात्रिजनितान् कथयामि भूमन्
पश्चाद्दिनावतरणे च भवद्विलासान् ॥४॥
 

इस समय वे ब्रह्मा अपनी आयु के आधे भाग, अर्थात पचास वर्ष जो एक परार्ध कहलाता
है, व्यतीत करके स्थित हैं। हे भूमन! उस परार्ध की अन्तिम रात्रि और दूसरे
परार्ध के आरम्भ के दिन में घटित होने वाली आपकी लीलाओं का अब मैं वर्णन
करूंगा।


दिनावसानेऽथ सरोजयोनि:
सुषुप्तिकामस्त्वयि सन्निलिल्ये ।
जगन्ति च त्वज्जठरं समीयु-
स्तदेदमेकार्णवमास विश्वम् ॥५॥
 

दिन के बीत जाने पर ब्रह्मा , सोने की इच्छा से आप ही में विलीन हो गये और यह
जगत भी आप के ही उदर में समा गया। तब यह सब कुछ एक समुद्र के समान ही हो कर रह
गया।




तवैव वेषे फणिराजि शेषे
जलैकशेषे भुवने स्म शेषे ।
आनन्दसान्द्रानुभवस्वरूप:
स्वयोगनिद्रापरिमुद्रितात्मा ॥६॥
 

समस्त भुवनों के जल मग्न हो जाने पर अपने ही प्रतिरूप शेष नाग पर, स्वयं को
योगनिद्रा से आवृत्त कर के, आनन्द घन अनुभव स्वरूप आप शयन करने लगे।


कालाख्यशक्तिं प्रलयावसाने
प्रबोधयेत्यादिशता किलादौ ।
त्वया प्रसुप्तं परिसुप्तशक्ति-
व्रजेन तत्राखिलजीवधाम्ना ॥७॥
 
इस प्रकार प्रलय के आरम्भ में, आपमें शक्तियों के समूह विलीन हो गये थे। समस्त
जीवों के विश्राम स्वरूप आप तब, समय नामक शक्ति को यह आदेश दे कर कि - 'प्रलय
के अन्त में जगा देना", सो गये।
 

चतुर्युगाणां च सहस्रमेवं
त्वयि प्रसुप्ते पुनरद्वितीये ।
कालाख्यशक्ति: प्रथमप्रबुद्धा
प्राबोधयत्त्वां किल विश्वनाथ ॥८॥
 
हे अद्वितीय विश्वनाथ! इस प्रकार एक सहस्र चतुर्युगों तक आपके सो जाने पर, समय
नामक शक्ति ने पहले जागृत हो कर, फिर निश्चय ही आपको जगाया।
विबुध्य च त्वं जलगर्भशायिन्
विलोक्य लोकानखिलान् प्रलीनान् ।
तेष्वेव सूक्ष्मात्मतया निजान्त: -
स्थितेषु विश्वेषु ददाथ दृष्टिम् ॥९॥
 
एकार्णव हुए जगत के मध्य में शयन करने वाले हे भगवन! जाग कर फिर आपने समस्त
लोकों को विलीन हुए देखा। आप ही में सूक्ष्म रूप से स्थित उन समस्त विश्वों पर
आपने दृष्टि डाली।
 

ततस्त्वदीयादयि नाभिरन्ध्रा-
दुदञ्चितं किंचन दिव्यपद्मम् ।
निलीननिश्शेषपदार्थमाला-
संक्षेपरूपं मुकुलायमानम् ॥१०॥
 
फिर हे भगवन! आप ही के नाभि छिद्र से एक दिव्य कमल उद्भूत हुआ, जो अभी कली की
अवस्था ही में था। उसमें समस्त पदार्थ समूह संक्षिप्त बीज रूप में समाया हुआ
था।
 

तदेतदंभोरुहकुड्मलं ते
कलेवरात् तोयपथे प्ररूढम् ।
बहिर्निरीतं परित: स्फुरद्भि:
स्वधामभिर्ध्वान्तमलं न्यकृन्तत् ॥११॥
 
आपके शरीर से अंकुरित वह कमल कली जल के मध्य से निकल कर बाहर आ गई। उसके तेज
से जो प्रकाश चारों ओर स्फुरित हो रहा था, उस तेजोमय प्रकाश से समस्त अन्धकार
पूर्णतया नष्ट हो गया।
 

संफुल्लपत्रे नितरां विचित्रे
तस्मिन् भवद्वीर्यधृते सरोजे ।
स पद्मजन्मा विधिराविरासीत्
स्वयंप्रबुद्धाखिलवेदराशि: ॥१२॥
 
आपकी शक्ति से धारित सुविकसित दल वाले उस अत्यन्त विचित्र कमल के ऊपर
पद्मजन्मा ब्रह्मा आविर्भूत हुए, जिन्हें पहले से ही समस्त वेद राशि का ज्ञान
था।
 

अस्मिन् परात्मन् ननु पाद्मकल्पे
त्वमित्थमुत्थापितपद्मयोनि: ।
अनन्तभूमा मम रोगराशिं
निरुन्धि वातालयवास विष्णो ॥१३॥
 
अनन्त वीर्यान्वित भूमन! इस प्रकार पाद्मकल्प में निश्चय ही आपने ब्रह्मा को
आविर्भूत किया। हे गुरुवायुरवासिन परमात्मन! मेरी रोगों की राशि को नष्ट करें।

ॐ नमो नारायणाय नम:  


श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ७




श्रीमन् नारायणीम्  *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ७

एवं देव चतुर्दशात्मकजगद्रूपेण जात: पुन-
स्तस्योर्ध्वं खलु सत्यलोकनिलये जातोऽसि धाता स्वयम् ।
यं शंसन्ति हिरण्यगर्भमखिलत्रैलोक्यजीवात्मकं
योऽभूत् स्फीतरजोविकारविकसन्नानासिसृक्षारस: ॥१॥
 

हे देव! इस प्रकार से चौदह प्रकार के जगदात्मक स्वरूप से पैदा हो कर फिर आप
उसके ऊपर सत्यलोक के निवास में स्वयं ब्रह्मा रूप से आविर्भूत हुए, जिसे
हिरण्यगर्भ कहते हैं। अशेष त्रैलोक्य के जीवात्मक स्वरूप, उद्भूत रजोगुण से
बढी हुई नाना प्रकार की सृष्टि की रचना करने की इच्छा वाले बने।



सोऽयं विश्वविसर्गदत्तहृदय: सम्पश्यमान: स्वयं
बोधं खल्वनवाप्य विश्वविषयं चिन्ताकुलस्तस्थिवान् ।
तावत्त्वं जगतां पते तप तपेत्येवं हि वैहायसीं
वाणीमेनमशिश्रव: श्रुतिसुखां कुर्वंस्तप:प्रेरणाम् ॥२॥
 

हे जगदीश्वर! वही ब्रह्मा विश्व की सृष्टि रचना में दत्त चित्त हो कर स्वयं ही
विचार करने की चेष्टा करने लगे, किन्तु रचना के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं
प्राप्त कर पाए, अतएव चिन्ताकुल हो कर निश्चेष्ट हो कर बैठ गये। तब आपने उनको
'तप तप' इस प्रकार आकाशवाणी सुनाई, जो सुनने में सुख देने वाली थी और तप करने
की प्रेरणा दे रही थी।



कोऽसौ मामवदत् पुमानिति जलापूर्णे जगन्मण्डले
दिक्षूद्वीक्ष्य किमप्यनीक्षितवता वाक्यार्थमुत्पश्यता ।
दिव्यं वर्षसहस्रमात्ततपसा तेन त्वमाराधित -
स्तस्मै दर्शितवानसि स्वनिलयं वैकुण्ठमेकाद्भुतम् ॥३॥
 

ब्रह्मा जी ने चारों ओर देखा यह जानने के लिये कि कहां से और किस पुरुष की
आवाज आई है। किन्तु जल प्लावित जगत मण्डल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देख पाए।
फिर उन्होंने वाक्य की गम्भीरता पर विचार करके एक सहस्र दिव्य वर्षों तक
तपस्या की। उस तपस्या से आपकी ही आराधना की गई थी। तब आपने ब्रह्मा जी को अपना
अद्वितीय अद्भुत निवास स्थान वैकुण्ठ दिखाया।


माया यत्र कदापि नो विकुरुते भाते जगद्भ्यो बहि:
शोकक्रोधविमोहसाध्वसमुखा भावास्तु दूरं गता: ।
सान्द्रानन्दझरी च यत्र परमज्योति:प्रकाशात्मके
तत्ते धाम विभावितं विजयते वैकुण्ठरूपं विभो ॥४॥
 

हे विभो! वह वैकुण्ठ धाम माया के विकारों से अप्रभावित है और चौदह भुवनो से
परे देदीप्यमान है। शोक, क्रोध, मोह भय आदि वहां नहीं व्यापते। वहां घनीभूत
आनन्द का निर्झर वहां सदा बहता रहता है और आत्मानुभूति की परम ज्योति वहां सदा
विद्यमान रहती है। ऐसा आपका निवास स्थान जो वैकुण्ठ नाम से जाना जाता है, आपने
ब्रह्मा जी को दिखाया।



यस्मिन्नाम चतुर्भुजा हरिमणिश्यामावदातत्विषो
नानाभूषणरत्नदीपितदिशो राजद्विमानालया: ।
भक्तिप्राप्ततथाविधोन्नतपदा दीव्यन्ति दिव्या जना-
तत्ते धाम निरस्तसर्वशमलं वैकुण्ठरूपं जयेत् ॥५॥
 

जिन दिव्य जनों ने भक्ति से प्राप्त उन्नत पद प्राप्त किया है, वे निश्चय ही
चार भुजाओं वाले हैं, नील मणि के समान श्याम वर्ण वाले हैं, नाना प्रकार के
रत्न जडित आभूषणों से सुसज्जित वे चारों दिशाओं को आलोकित करते हैं। वे
शोभायमान बिमानों के समान घरों में रहते हैं। ऐसे दिव्य जन, सब पापों से रहित
आपके वैकुण्ठधाम में वास करते हैं। हे वैकुण्ठ स्वरूप! आपकी जय हो!



नानादिव्यवधूजनैरभिवृता विद्युल्लतातुल्यया
विश्वोन्मादनहृद्यगात्रलतया विद्योतिताशान्तरा ।
त्वत्पादांबुजसौरभैककुतुकाल्लक्ष्मी: स्वयं लक्ष्यते
यस्मिन् विस्मयनीयदिव्यविभवं तत्ते पदं देहि मे ॥६॥
 

उस वैकुण्ठ में, जिसमें नानाविध दिव्याङ्गनाओं से घिरी हुई, विद्युत लता के
समान विश्व को उन्मादित करने वाली देह लता से दिशाओं को प्रदीप्त करने वाली,
सदा आपके चरणो के सौरभपान के लिये लालायित लक्ष्मी स्वयं देखी जाती है। वह
वैकुण्ठ आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न है, एवं समस्त पापों से रहित है, ऐसा आपका
परम पद मुझे दीजिये।



तत्रैवं प्रतिदर्शिते निजपदे रत्नासनाध्यासितं
भास्वत्कोटिलसत्किरीटकटकाद्याकल्पदीप्राकृति ।
श्रीवत्साङ्कितमात्तकौस्तुभमणिच्छायारुणं कारणं
विश्वेषां तव रूपमैक्षत विधिस्तत्ते विभो भातु मे ॥७॥
 

हे विभो! वहां, इस प्रकार दिखाये गये आपके पद वैकुण्ठ में ब्रह्मा ने नाना
प्रकार के रत्नो से जडे हुए सिंहासन पर विराजमान, करोडों सूर्य के समान चमकते
हुए मुकुट और नाना प्रकार की आकृति वाले कङ्गन आदि से शोभित, श्रीवत्स से
अङ्कित, तथा कण्ठ में धारण की हुई कौस्तुभ मणि की अरुण छाया से सुसज्जित,
विश्व के कारण स्वरूप, आपके रूप को देखा। वह दिव्य रूप मुझे भी स्पष्ट हो।



कालांभोदकलायकोमलरुचीचक्रेण चक्रं दिशा -
मावृण्वानमुदारमन्दहसितस्यन्दप्रसन्नाननम् ।
राजत्कम्बुगदारिपङ्कजधरश्रीमद्भुजामण्डलं
स्रष्टुस्तुष्टिकरं वपुस्तव विभो मद्रोगमुद्वासयेत् ॥८॥
 

हे विभो! काले बादलों और कोमल कलाय फूलों के समान सुन्दर चक्र से सम्पूर्ण
दिशाओं को आलोकित करने वाला, उदार मन्द हंसी के निर्झर से प्रसन्न मुखमण्डल
वाला, शोभायमान शङ्ख, गदा, चक्र और कमल धारण किये हुए दिव्य भुजाओं वाला,
ब्रह्मा को तुष्टि प्रदान करने वाला आपका वह स्वरूप मेरे रोगों का विनाश करे।



दृष्ट्वा सम्भृतसम्भ्रम: कमलभूस्त्वत्पादपाथोरुहे
हर्षावेशवशंवदो निपतित: प्रीत्या कृतार्थीभवन् ।
जानास्येव मनीषितं मम विभो ज्ञानं तदापादय
द्वैताद्वैतभवत्स्वरूपपरमित्याचष्ट तं त्वां भजे ॥९॥
 

इस अद्भुत रूप के दर्शन करके ब्रह्मा विस्मित और चकित हो कर और हर्ष के आवेश
में आपके चरण कमलों पर गिर पडे। प्रसन्नता से परिपूरित कृतार्थ भाव से बोले
-'हे विभो! आप मेरा मनोरथ जानते ही हैं। द्वैत एवं अद्वैत, आपके परम स्वरूप का
बोध कराने वाला ज्ञान दीजिये' - ब्रह्मा ने इस प्रकार कहा जिनसे, उन आपका मैं
भजन करता हूं।



आताम्रे चरणे विनम्रमथ तं हस्तेन हस्ते स्पृशन्
बोधस्ते भविता न सर्गविधिभिर्बन्धोऽपि सञ्जायते ।
इत्याभाष्य गिरं प्रतोष्य नितरां तच्चित्तगूढ: स्वयं
सृष्टौ तं समुदैरय: स भगवन्नुल्लासयोल्लाघताम् ॥१०॥
 

अपने अरुणाभ चरणों पर पडे हुए विनम्र ब्रह्मा के हाथ को अपने हाथ से स्पर्श
करके आपने कहा कि - 'तुमको सृष्टि की रचना करने का ज्ञान होगा और रचना की
विधियों से कोई बन्धन भी नहीं होगा।' इस प्रकार वाणी कह कर ब्रह्मा को
भलीभांति सन्तुष्ट कर के उनके चित्त में आप गूढ रूप से प्रवेश कर गये और उन्हे
सृष्टि की रचना करने की प्रेरणा दी। वही हे भगवन! आप मेरी निरोगिता का सम्पादन
कीजिये।


 
ॐ नमो नारायणाय नम: ..

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ६

श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ६

एवं चतुर्दशजगन्मयतां गतस्य
पातालमीश तव पादतलं वदन्ति ।
पादोर्ध्वदेशमपि देव रसातलं ते
गुल्फद्वयं खलु महातलमद्भुतात्मन् ॥१॥
 


हे अद्भुत आत्मन देवेश्वर! इस प्रकार चौदह भुवन रूपता को प्राप्त हुए आपके
चरणों के तलवे को इस जगत का पाताल , पांव के ऊपर के हिस्से को रसातल, और आपके
दोनों टखनों को महातल कहा गया हैं।


जङ्घे तलातलमथो सुतलं च जानू
किञ्चोरुभागयुगलं वितलातले द्वे ।
क्षोणीतलं जघनमम्बरमङ्ग नाभि-
र्वक्षश्च शक्रनिलयस्तव चक्रपाणे ॥२॥

आपकी दोनों पिंडलियां तलातल हैं। और फिर दोनों घुटने सुतल हैं। और भी, जङ्घा
के ऊपरी और्र निचले भाग दोनों वितल और अतल हैं। आपका जघन भाग पृथ्वी है। हे
ईश्वर! आकाश आपकी नाभि है। और हे चक्रपाणि! आपका वक्षस्थल इन्द्र का निवास
स्थान (स्वर्ग) है।


ग्रीवा महस्तव मुखं च जनस्तपस्तु
फालं शिरस्तव समस्तमयस्य सत्यम् ।
एवं जगन्मयतनो जगदाश्रितैर-
प्यन्यैर्निबद्धवपुषे भगवन्नमस्ते ॥३॥
 


हे विश्वात्मक! आपका कण्ठ महर्लोक है, मुख जन लोक है, ललाट तप लोक है और
सर्वस्वमय आपका सिर सत्यलोक है। हे भगवन! जगत से सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएं
या अवयव हैं, सभी आपमें समाहित है, ऐसे शरीर वाले आपको नमस्कार है।


त्वद्ब्रह्मरन्ध्रपदमीश्वर विश्वकन्द
छन्दांसि केशव घनास्तव केशपाशा: ।
उल्लासिचिल्लियुगलं द्रुहिणस्य गेहं
पक्ष्माणि रात्रिदिवसौ सविता च नेत्रै ॥४॥
 


विश्व के कारणभूत हे ईश्वर! आपका ब्रह्मरन्ध्र वेद हैं। हे केशव! आपके केशसमूह
मेघ हैं, शोभाशाली भ्रू युगल ब्रह्मा का घर है, आपकी दोनों पलकें रात और दिन
हैं, और आपके दोनों नेत्र सूर्य है।


निश्शेषविश्वरचना च कटाक्षमोक्ष:
कर्णौ दिशोऽश्वियुगलं तव नासिके द्वे ।
लोभत्रपे च भगवन्नधरोत्तरोष्ठौ
तारागणाश्च दशना: शमनश्च दंष्ट्रा ॥५॥
 


हे भगवन! असीमित विश्व की रचना आपका दृष्टिपात है, कान दिशाएं हैं, अश्विनि
कुमार दोनों नासिकाएं हैं, लोभ और लज्जा अधर और उत्तर ओष्ट हैं। तारा गण आपके
दांत और यमराज आपकी दाढें हैं।


माया विलासहसितं श्वसितं समीरो
जिह्वा जलं वचनमीश शकुन्तपङ्क्ति: ।
सिद्धादय: स्वरगणा मुखरन्ध्रमग्नि-
र्देवा भुजा: स्तनयुगं तव धर्मदेव: ॥६॥
 


हे ईश्वर! आपकी लीलापूर्ण हंसी माया है, श्वास वायु है, जिह्वा जल है, वचन
पक्षि समूह है, स्वर समुदाय सिद्धगण हैं, मुख छिद्र अग्नि है, भुजाएं देवगण
हैं, और आपके स्तन युगल धर्म देव हैं।


पृष्ठं त्वधर्म इह देव मन: सुधांशु -
रव्यक्तमेव हृदयंबुजमम्बुजाक्ष ।
कुक्षि: समुद्रनिवहा वसनं तु सन्ध्ये
शेफ: प्रजापतिरसौ वृषणौ च मित्र: ॥७॥
 


हे देव इस संसार में आपकी पीठ अधर्म है, मन चन्द्रमा है, अव्यक्त हृदय कमल है।
हे कमलनयन! आपकी कुक्षी समुद्र समुदाय है, वस्त्र दोनों सन्ध्यायें है, लिङ्ग
प्रजापति हैं और ये अण्डकोश मित्र देवता हैं।


श्रोणीस्थलं मृगगणा: पदयोर्नखास्ते
हस्त्युष्ट्रसैन्धवमुखा गमनं तु काल: ।
विप्रादिवर्णभवनं वदनाब्जबाहु-
चारूरुयुग्मचरणं करुणांबुधे ते ॥८॥
 


हे करुणासागर! आपका कटिभाग मृगसमूह है, आपके चरणों के नख हाथी ऊंट घोडे आदि
हैं, आपकी चाल समय है, आपके मुखकमल, भुजाएं, दोनों सुन्दर जङ्घा एवं चरण,
क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र के उत्पत्ति स्थल हैं।


संसारचक्रमयि चक्रधर क्रियास्ते
वीर्यं महासुरगणोऽस्थिकुलानि शैला: ।
नाड्यस्सरित्समुदयस्तरवश्च रोम
जीयादिदं वपुरनिर्वचनीयमीश ॥९॥
 


हे चक्रधर! यह संसार चक्र आपकी क्रियाएं हैं, महान असुरों का समुदाय आपका
वीर्य है, पर्वत अस्थि समूह हैं, नदियों का समूह नाडियां है, पेड आपके रोम
हैं। हे ईश्वर! आपके ऐसे इस अवर्णनीय शरीर की जय हो।


ईदृग्जगन्मयवपुस्तव कर्मभाजां
कर्मावसानसमये स्मरणीयमाहु: ।
तस्यान्तरात्मवपुषे विमलात्मने ते
वातालयाधिप नमोऽस्तु निरुन्धि रोगान् ॥१०॥
 


हे गुरुवायुरीश्वर! इस प्रकार के जगत मय विराट स्वरूप आप जीवमात्र के लिये ,
उनके कर्मावसान के समय स्मरणीय हैं, ऐसा कहा जाता है। उस विराट स्वरूप में
निर्मल सात्विक अन्तरयामी रूपवाले आपको नमस्कार है। मेर रोगों का नाश करें।


ॐ नमो नारायणाय नम:

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ४

श्रीमन् नारायणीम्  *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ४

कल्यतां मम कुरुष्व तावतीं कल्यते भवदुपासनं यया ।
स्पष्टमष्टविधयोगचर्यया पुष्टयाशु तव तुष्टिमाप्नुयाम् ॥१॥
 

हे ईश! मुझको कम से कम इतना स्वास्थ्य प्रदान कीजिये जिससे मैं आपकी उपासना कर
सकूं। फिर निश्चय ही अष्टाङ्ग योग का पालन करके, शीघ्र ही पुष्टि लाभ करके,
आपकी प्रसन्नता प्राप्त कर लूंगा।



ब्रह्मचर्यदृढतादिभिर्यमैराप्लवादिनियमैश्च पाविता: ।
कुर्महे दृढममी सुखासनं पङ्कजाद्यमपि वा भवत्परा: ॥२॥
 

हे ईश! हम, आपके भक्त, ब्रह्मचर्य आदि यमों के द्वारा दृढ हो कर एवं स्नान आदि
नियमों से पवित्र हो कर, आपके सम्मुख हो कर पद्मासन या सुखासन आदि को भी दृढता
से अभ्यास करेंगे।



तारमन्तरनुचिन्त्य सन्ततं प्राणवायुमभियम्य निर्मला: ।
इन्द्रियाणि विषयादथापहृत्यास्महे भवदुपासनोन्मुखा: ॥३॥
 

हे ईश! अन्तरमन में निरन्तर प्रणव का ध्यान धारण करके प्राण वायु का सुसंचार
करके फिर इन्द्रियों को विषयों से हटा कर हम आपकी उपासना के लिए प्रस्तुत हो
जायेंगे।



अस्फुटे वपुषि ते प्रयत्नतो धारयेम धिषणां मुहुर्मुहु: ।
तेन भक्तिरसमन्तरार्द्रतामुद्वहेम भवदङ्घ्रिचिन्तका ॥४॥
 

हे ईश! आपके अस्पष्ट विग्रह पर यत्नत: बुद्धि को बार बार लगायेंगे। इस प्रकार
सतत अभ्यास से भक्ति रस एवं चित्त की कोमलता प्राप्त कर के आपके चरण कमलों के
पुजारी हो जायेंगे।



विस्फुटावयवभेदसुन्दरं त्वद्वपु: सुचिरशीलनावशात् ।
अश्रमं मनसि चिन्तयामहे ध्यानयोगनिरतास्त्वदाश्रयाः ॥५॥
 

हे ईश! चिरकाल तक ध्यानावस्थित रहने के कारण स्पष्ट हो रहे आपके श्रीविग्रह के
पादादिकेशान्त (चरणों से केशों तक) अवयव भेद में अनायास ही ध्यान लग जायेगा।
ध्यान योग में लगे हुए हम, आपके भक्त, आपके आश्रित हो जायेंगे।



ध्यायतां सकलमूर्तिमीदृशीमुन्मिषन्मधुरताहृतात्मनाम् ।
सान्द्रमोदरसरूपमान्तरं ब्रह्म रूपमयि तेऽवभासते ॥६॥
 

हे ईश! आपकी ऐसी कलामयी (सगुण) मूर्ति का ध्यान करने से मन में उत्पन्न हुई
मधुरता वालों के हृदय में, घनीभूत आनन्द स्वरूप आपका ब्रह्म (निर्गुण) रूप
उद्भासित हो जाता है।



तत्समास्वदनरूपिणीं स्थितिं त्वत्समाधिमयि विश्वनायक ।
आश्रिता: पुनरत: परिच्युतावारभेमहि च धारणादिकम् ॥७॥
 

हे विश्वनायक! उस अनुभव के रसास्वादन की स्थिति से प्राप्त आपकी समाधि के
आश्रित हुए हम, यदि पुन: वहां से च्युत हो जाएं, तो फिर से धारणा आदि योग के
अभ्यास का आरम्भ करेंगे।



इत्थमभ्यसननिर्भरोल्लसत्त्वत्परात्मसुखकल्पितोत्सवा: ।
मुक्तभक्तकुलमौलितां गता: सञ्चरेम शुकनारदादिवत् ॥८॥
 

हे ईश! इस प्रकार से अभ्यास करते हुए स्वतन्त्रता से अभिभूत होते हुए, आपके
परात्म सुख से उत्पन्न उत्साह वाले हम जीवन्मुक्त भक्तों के कुल के शिरोमणि
शुक नारद आदि के समान विचरण करेंगे।



त्वत्समाधिविजये तु य: पुनर्मङ्क्षु मोक्षरसिक: क्रमेण वा ।
योगवश्यमनिलं षडाश्रयैरुन्नयत्यज सुषुम्नया शनै: ॥९॥
 

हे अज! आपकी समाधि पा कर जो जन सद्य मुक्ति चाहता है अथवा जो जन क्रममुक्ति
चाहता है, वह योग के प्रभाव से प्राण वायु को षट् चक्रों के सहारे सुषुम्ना
नाडी के द्वारा, धीरे धीरे ऊपर को ले जाता है।



लिङ्गदेहमपि सन्त्यजन्नथो लीयते त्वयि परे निराग्रह: ।
ऊर्ध्वलोककुतुकी तु मूर्धत: सार्धमेव करणैर्निरीयते ॥१०॥
 

निराग्रही जन लिङ्ग देह का भी त्याग कर के आपके ब्रह्म स्वरूप में विलीन हो
जाता है। किन्तु ऊर्ध्व लोकों का अभिलाषी ब्रह्मरन्ध्र को भेद कर इन्द्रियों
के सहित ही ऊपर चला जाता है।



अग्निवासरवलर्क्षपक्षगैरुत्तरायणजुषा च दैवतै: ।
प्रापितो रविपदं भवत्परो मोदवान् ध्रुवपदान्तमीयते ॥११॥
 

हे ईश! आपके परायण भक्त जन अग्नि वासर शुक्लपक्ष एवं उत्तरायण के अधिष्ठाता
देवताओं के द्वारा सूर्य लोक तक पहुंचाए जाने पर आनन्द पूर्वक ध्रुव लोक को
प्राप्त करते हैं।



आस्थितोऽथ महरालये यदा शेषवक्त्रदहनोष्मणार्द्यते ।
ईयते भवदुपाश्रयस्तदा वेधस: पदमत: पुरैव वा ॥१२॥
 

तदन्तर महर्लोक में वास करता हुआ जब जीव आदिशेष के मुख से निकली हुई अग्नि की
ऊष्मा से संतप्त होता है, तब आपके शरणागत हो कर, ब्रह्मलोक को पहुंच जाता है।
अथवा वह चाहे तो ऊष्मा से संतप्त होने से पहले ही वह ब्रह्मलोक जा सकता है।



तत्र वा तव पदेऽथवा वसन् प्राकृतप्रलय एति मुक्तताम् ।
स्वेच्छया खलु पुरा विमुच्यते संविभिद्य जगदण्डमोजसा ॥१३॥
 

ब्रह्मलोक में अथवा आपके लोक - वैकुण्ठलोक में रहते हुए, प्राकृत प्रलय के समय
मुक्त हो जाता है। अथवा निश्चय ही पहले ही, स्वेच्छा से अपनी यौगिक शक्ति से
जगत् ब्रह्माण्ड को भेदता हुआ मुक्त हो जाता है।



तस्य च क्षितिपयोमहोऽनिलद्योमहत्प्रकृतिसप्तकावृती: ।
तत्तदात्मकतया विशन् सुखी याति ते पदमनावृतं विभो ॥१४॥
 

हे विभो! उस जगत् ब्रह्माण्ड के सात आवरण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, महत
तत्त्व एवं प्रकृति को उनके अनुकूल स्वरूप को धारण कर के उनमें प्रवेश करता
हुआ सुखानुभूति के साथ आपके अनावृत पद-ब्रह्म पद को चला जाता है।



अर्चिरादिगतिमीदृशीं व्रजन् विच्युतिं न भजते जगत्पते ।
सच्चिदात्मक भवत् गुणोदयानुच्चरन्तमनिलेश पाहि माम् ॥१५॥
 

हे जगत्पति! इस प्रकार ज्योति आदि गतियों को प्राप्त करके, भक्त, विच्युत हो
कर फिर संसार में नहीं आता। हे सच्चिदानन्दस्वरूप! आपके गुणों की महत्ता का
गान करने वाले मुझ पर कृपा करें। हे अनिलेश! मेरी रक्षा करें।



ॐ नमो नारायणाय नम: