श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १८
जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्ते- रङ्गस्य व्यजनि सुत: स वेननामा ।
यद्दोषव्यथितमति: स राजवर्य- स्त्वत्पादे निहितमना वनं गतोऽभूत् ॥१
ध्रुव के ही कुल में बहुत विख्यात कीर्ति वाले राजा अङ्ग हुए। उनके पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम वेन था। वेन के कुचरित्र से दु:खी राजश्रेष्ठ अङ्ग ने आपके चरणो मे मन को लगा लिया और वन को चले गये।
पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेन: पौराद्यैरुपनिहित: कठोरवीर्य: ।
सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रशंसन् भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥२॥
पृथ्वी के शासक की कमी होने के कारण, वेन के पापी होने पर भी पुरवासियों ने उसका राजतिलक कर दिया। क्रूर वीरता वाले उसने लोगों से अपनी ही वीरता की प्रशंसा करवाते हुए भूतल पर आपके पूजन अर्चनादि पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।
सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्वरैस्तै: शापाग्नौ शलभदशामनायि वेन: ॥३॥
मुनि समुदाय वेन के हितार्थ वचन कहने के लिये उसके पास गये, किन्तु उसने कहा कि सम्पूर्ण भुवन मण्डल में उसके समान प्रतापी कोई है ही नहीं और आपकी निन्दा करने में प्रवृत्त हो गया। तब उन मुनीश्वरों ने शापाग्नि में जला कर उसे शलभ समान कर दिया।
तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रै- स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।
त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डा- द्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासी: ॥४॥
वेन के नाश होने से दुष्टों की अराजकता के भय से मुनिजन भयभीत हो गये । तब वेन की माता के द्वारा दीर्घकाल तक सुरक्षित रखे गये उसके शरीर में से जङ्घाओं के मथे जाने पर वेन के पाप निकल गये। फिर उसके बाहु दण्डों को मथा गया। तब स्वयं आप प्रकट हो गये।
विख्यात: पृथुरिति तापसोपदिष्टै: सूताद्यै: परिणुतभाविभूरिवीर्य: ।
वेनार्त्या कबलितसम्पदं धरित्री- माक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षी: ॥५॥
इस अवतार में आप पृथु नाम से विख्यात हुए। तपस्वियों के उपदेश से सूत आदि ने आपके भावी पराक्रम की स्तुति और प्रशंसा की। वेन के सताये जाने पर पृथ्वी ने अपनी सम्पदाएं आत्मसात कर ली थी। अप धनुष से आक्रमण कर के आपने उन्हे समान तल पर खींच कर ले आए।
भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्त्यै- र्देवाद्यै: समुचितचारुभाजनेषु ।
अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥६॥
तब फिर से आपने देवादि के द्वारा अपने अपने कुल के प्रधान पुरुषों के साथ अत्यन्त सुन्दर पात्रों में अन्न औषधि आदि जो कुछ भी अभिलषित था, उन वस्तुओं का सुरभि रूपी पृथ्वी से दोहन करवाया।
आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम- न्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
स्पर्धालु: शतमख एत्य नीचवेषो हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥७॥
हे त्रिधामन! यज्ञों के द्वारा आप स्वयं का स्वयं ही यजन कर रहे थे। सौवें अश्वमेध यज्ञ के प्रारम्भ होने के समय ईर्ष्यालू इन्द्र ने कपट वेष में यज्ञ अश्व चुराने का प्रयत्न किया, तब वह आपके पुत्र के द्वारा हरा दिया गया।
देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।
रुन्धाने कमलभवे क्रतो: समाप्तौ साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथा: स्वयं स्वम् ॥८॥
इन्द्र के इस प्रकार बार बार घोडे को चुरा लेने से खिन्न मुनिमण्डल उसे ही अग्नि में होम देना चाहते थे, किन्तु ब्रह्मा जी ने उन्हें रोक दिया। यज्ञ के समाप्त होने पर आपने (पृथु ने) स्वयं ही स्वयं को साक्षात मधुसूदन रूप में देखा।
तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां गङ्गान्ते विहितपद: कदापि देव ।
सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस- न्नैक्षिष्ठा: सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥९॥
मधुसूदन से आपने (पृथु ने) एकनिष्ठ भक्ति का वरदान पाया। हे देव! एक बार गङ्गा के तट पर चुने हुए स्थान पर यज्ञ मे उपस्थित मुनिवृन्द को आप धर्म का उपदेश दे रहे थे। उसी समय आपने अपने समक्ष सनकादि मुनियों को देखा।
विज्ञानं सनकमुखोदितं दधान: स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।
तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥१०॥
फिर आप वन में रहने लगे। सनकादि मुनियों के द्वारा दिये गये ब्रह्म ज्ञान के उपदेश को भली भांति धारण करते हुए आपने स्वयं अपनी आत्मा को स्वयं के भीतर प्राप्त किया। ऐसे पृथुवपुधारी ईश! हे वातगेहवासिन! शीघ्र ही मेरे रोग समूहों को नष्ट कीजिये।
ॐ नमो नारायणाय नम: ..