Sunday, February 10, 2013

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - ३५






*श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - ३५ *

नीतस्सुग्रीवमैत्रीं तदनु हनुमता दुन्दुभे: कायमुच्चै:
क्षिप्त्वाङ्गुष्ठेन भूयो लुलुविथ युगपत् पत्रिणा सप्त सालान् ।
हत्वा सुग्रीवघातोद्यतमतुलबलं बालिनं व्याजवृत्त्या
वर्षावेलामनैषीर्विरहतरलितस्त्वं मतङ्गाश्रमान्ते ॥१॥

:: उसके बाद हनुमान ने सुग्रीव से मैत्री करवाई। दुन्दुभि के शव को आपने पांव के
अङ्गूठे से दूर फेंक दिया और एक ही बाण से सात साल वृक्षों को काट डाला। फिर
आपने सुग्रीव को मारने में उद्यमी अत्यन्त वीर बालि को चतुराई से मार डाला।
विरह से कातर आपने वर्षा ऋतु मतङ्ग मुनि के आश्रम के पास बिताई।

सुग्रीवेणानुजोक्त्या सभयमभियता व्यूहितां वाहिनीं ता-
मृक्षाणां वीक्ष्य दिक्षु द्रुतमथ दयितामार्गणायावनम्राम् ।
सन्देशं चाङ्गुलीयं पवनसुतकरे प्रादिशो मोदशाली
मार्गे मार्गे ममार्गे कपिभिरपि तदा त्वत्प्रिया सप्रयासै: ॥२॥

:: भाई लक्ष्मण के द्वारा शासित किए जाने पर भयभीत सुग्रीव आये और उन्होंने तब
भालूओं और वानरों की सेना इकट्ठी करके सब दिशाओं में शीघ्रता से आपकी पत्नि को
खोजने के लिये प्रस्तुत किया। उस सेना को देख कर प्रसन्नचित्त होकर हनुमान के
हाथ में सीता के लिय अङ्गूठी और सन्देश दिया। वानरों ने भी मार्ग मार्ग में
आपकी प्रिया को सप्रयास खोजा।

त्वद्वार्ताकर्णनोद्यद्गरुदुरुजवसम्पातिसम्पातिवाक्य-
प्रोत्तीर्णार्णोधिरन्तर्नगरि जनकजां वीक्ष्य दत्वाङ्गुलीयम् ।
प्रक्षुद्योद्यानमक्षक्षपणचणरण: सोढबन्धो दशास्यं
दृष्ट्वा प्लुष्ट्वा च लङ्कां झटिति स हनुमान् मौलिरत्नं ददौ ते ॥३॥

:: आपकी वार्ता सुन कर सम्पाति के पर वेग से निकल आये और उसके कहने पर हनुमान ने
समुद्र को लांघ कर लङ्का में प्रवेश किया। वहां जानकी को देख कर उनको अङ्गूठी
दी और अशोक वाटिका को रौंद डाला। रण में निपुण हनुमान ने अक्ष कुमार को मार
दिया और ब्रह्मास्त्र बन्धन को स्वीकार किया। रावण को देखने के बाद उन्होंने
लङ्का को जला दिया और शीघ्र ही लौट कर आपको चूडामणि दी।

त्वं सुग्रीवाङ्गदादिप्रबलकपिचमूचक्रविक्रान्तभूमी-
चक्रोऽभिक्रम्य पारेजलधि निशिचरेन्द्रानुजाश्रीयमाण: ।
तत्प्रोक्तां शत्रुवार्तां रहसि निशमयन् प्रार्थनापार्थ्यरोष-
प्रास्ताग्नेयास्त्रतेजस्त्रसदुदधिगिरा लब्धवान् मध्यमार्गम् ॥४॥

:: सुग्रीव और अङ्गद आदि अनेक प्रबल वानरों की सेना ले कर ने भूमितल का अतिक्रमण
करके समुद्र को लांघने के विचार से आप समुद्र के तट पर पहुंचे।आपकी शरण लेते
हुए रावण के छोटे भाई ने शत्रु का पूर्ण रहस्यमय वृतान्त आपको सुनाया। फिर
आपने समुद्र से मार्ग देने की प्रार्थना की। प्रार्थना के निष्फल होने से
क्रोध में आपने आग्नेयास्त्र भेजा। उससे भयभीत हो कर समुद्र देव आपके सामने
उपस्थित हुए और उनके कहने पर समुद्र ने आपके लिए मार्ग प्रस्तुत कर दिया।

कीशैराशान्तरोपाहृतगिरिनिकरै: सेतुमाधाप्य यातो
यातून्यामर्द्य दंष्ट्रानखशिखरिशिलासालशस्त्रै: स्वसैन्यै: ।
व्याकुर्वन् सानुजस्त्वं समरभुवि परं विक्रमं शक्रजेत्रा
वेगान्नागास्त्रबद्ध: पतगपतिगरुन्मारुतैर्मोचितोऽभू: ॥५॥

:: वानरों के द्वारा सभी दिशाओं से लाये गये पर्वत खण्डों से सेतु का निर्माण कर
के आप लङ्का पहुंचे। दांतों, नखों, पर्वतों, चट्टानों, वृक्षों और शस्त्रों से
राक्षसों को मार कर वानर सेना ने अपने बल का प्रदर्शन किया। महान पराक्रमी आप
अपने भाई के संग इन्द्रजित के द्वारा बडे वेग से नागास्त्र से बांध लिये गये।
तब गरुड के पंखों की वायु से आप मुक्त हुए।

सौमित्रिस्त्वत्र शक्तिप्रहृतिगलदसुर्वातजानीतशैल-
घ्राणात् प्राणानुपेतो व्यकृणुत कुसृतिश्लाघिनं मेघनादम् ।
मायाक्षोभेषु वैभीषणवचनहृतस्तम्भन: कुम्भकर्णं
सम्प्राप्तं कम्पितोर्वीतलमखिलचमूभक्षिणं व्यक्षिणोस्त्वम् ॥६॥

:: वहां उस संग्राम में शक्ति के प्रहार से जब लक्ष्मण प्राण त्यागने लगे, तब
हनुमान द्वारा लाई गई पर्वतौषधि को सूघ कर लक्ष्मण ने फिर से प्राण लाभ किये
और मायावी विद्याओं में पटु मेघनाद को मार दिया। माया से क्षुभित हुई सेना को
विभीषण के बताये हुए उपाय से आपने स्तम्भन से मुक्त कर दिया। कुम्भकर्ण के
रणभूमि में आने से पृथ्वी डोलने लगी और वह वानर सेना को खाने लगा तब आपने उसे
मार डाला।

गृह्णन् जम्भारिसंप्रेषितरथकवचौ रावणेनाभियुद्ध्यन्
ब्रह्मास्त्रेणास्य भिन्दन् गलततिमबलामग्निशुद्धां प्रगृह्णन् ।
देवश्रेणीवरोज्जीवितसमरमृतैरक्षतै: ऋक्षसङ्घै-
र्लङ्काभर्त्रा च साकं निजनगरमगा: सप्रिय: पुष्पकेण ॥७॥

:: आपने इन्द्र के द्वारा भेजे हुए रथ और कवच को स्वीकार किया और रावण से युद्ध
करते हुए उसके शिर समूहों को काट डाला। अबला सीता को अग्नि परीक्षा के बाद
ग्रहण किया। देवों की श्रेणी में श्रेष्ठ इन्द्र के द्वारा रण भूमि में हत
रीछों और वानरों को पुन: जीवित किया और उनको क्षतों से विहीन किया। तदन्तर आप
प्रिया और लङ्का के राजा विभीषण के संग पुष्पक विमान पर आरूढ हो कर अपने नगर
को आये।
 
प्रीतो दिव्याभिषेकैरयुतसमधिकान् वत्सरान् पर्यरंसी-
र्मैथिल्यां पापवाचा शिव! शिव! किल तां गर्भिणीमभ्यहासी: ।
शत्रुघ्नेनार्दयित्वा लवणनिशिचरं प्रार्दय: शूद्रपाशं
तावद्वाल्मीकिगेहे कृतवसतिरुपासूत सीता सुतौ ते ॥८॥

:: दिव्य राज्याभिषेक से प्रसन्न हो कर आपने दस हजा वर्षों से अधिक अवधि तक
सुखपूर्वक राज्य किया। मैथिली के प्रति अपवचन सुन कर, आपने, गर्भिणी अवस्था
में भी उसे त्याग दिया । शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार दिया और आपने शूद्र मुनि
का संहार कर दिया। वाल्मीकि मुनि के आश्रम में निवास करती हुई सीता ने आपके दो
पुत्रों को जन्म दिया।
 
वाल्मीकेस्त्वत्सुतोद्गापितमधुरकृतेराज्ञया यज्ञवाटे
सीतां त्वय्याप्तुकामे क्षितिमविशदसौ त्वं च कालार्थितोऽभू: ।
हेतो: सौमित्रिघाती स्वयमथ सरयूमग्ननिश्शेषभृत्यै:
साकं नाकं प्रयातो निजपदमगमो देव वैकुण्ठमाद्यम् ॥९॥

:: वाल्मीकि मुनि की मधुर काव्य रचना को उनकी आज्ञा से आपके पुत्रों ने यज्ञशाला
में गाया। आपने वहां सीता को ग्रहण करने की इच्छा की, लिकिन वह धरती में समा
गई। निमित्तवश आपने लक्ष्मण को त्याग दिया और काल रूपी यम ने आपसे लौटने की
प्रार्थना की। तब आपने स्वयं सरयू के जल में समाधि ले ली और हे देव! अपने सभी
सेवकों के संग स्वर्ग में जा कर, वैकुण्ठ से भी परे अपने निवास को चले गये।

सोऽयं मर्त्यावतारस्तव खलु नियतं मर्त्यशिक्षार्थमेवं
विश्लेषार्तिर्निरागस्त्यजनमपि भवेत् कामधर्मातिसक्त्या ।
नो चेत् स्वात्मानुभूते: क्व नु तव मनसो विक्रिया चक्रपाणे
स त्वं सत्त्वैकमूर्ते पवनपुरपते व्याधुनु व्याधितापान् ॥१०॥

:: राम रूप में आपका यह मर्त्य अवतार निश्चय ही मनुष्यों की शिक्षा के लिये नियत
था। विरह की पीडा और निरपराधी का त्याग, काम और धर्म के प्रति अत्यधिक आसक्ति
के कारण ही सम्भव होते हैं। अन्यथा, हे चक्रपाणि! स्वयं अपनी आत्मा में स्थित
आपमें यह विकार कैसे सम्भव है? एक मात्र सत्व स्वरूप, हे पवनपुरपते! मेरे रोगो
जनित कष्टों को नष्ट कीजिये।

*ॐ नमो नारायणाय ..*





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