Wednesday, October 3, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १८







                          श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १८  

 

जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्ते- रङ्गस्य व्यजनि सुत: स वेननामा ।
यद्दोषव्यथितमति: स राजवर्य- स्त्वत्पादे निहितमना वनं गतोऽभूत् ॥१  

ध्रुव के ही कुल में बहुत विख्यात कीर्ति वाले राजा अङ्ग हुए। उनके पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम वेन था। वेन के कुचरित्र से दु:खी राजश्रेष्ठ अङ्ग ने आपके चरणो मे मन को लगा लिया और वन को चले गये।


पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेन: पौराद्यैरुपनिहित: कठोरवीर्य: ।
सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रशंसन् भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥२॥  

पृथ्वी के शासक की कमी होने के कारण, वेन के पापी होने पर भी पुरवासियों ने उसका राजतिलक कर दिया। क्रूर वीरता वाले उसने लोगों से अपनी ही वीरता की प्रशंसा करवाते हुए भूतल पर आपके पूजन अर्चनादि पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।


सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्वरैस्तै: शापाग्नौ शलभदशामनायि वेन: ॥३॥  

मुनि समुदाय वेन के हितार्थ वचन कहने के लिये उसके पास गये, किन्तु उसने कहा कि सम्पूर्ण भुवन मण्डल में उसके समान प्रतापी कोई है ही नहीं और आपकी निन्दा करने में प्रवृत्त हो गया। तब उन मुनीश्वरों ने शापाग्नि में जला कर उसे शलभ समान कर दिया।


तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रै- स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।
त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डा- द्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासी: ॥४॥  

वेन के नाश होने से दुष्टों की अराजकता के भय से मुनिजन भयभीत हो गये । तब वेन की माता के द्वारा दीर्घकाल तक सुरक्षित रखे गये उसके शरीर में से जङ्घाओं के मथे जाने पर वेन के पाप निकल गये। फिर उसके बाहु दण्डों को मथा गया। तब स्वयं आप प्रकट हो गये।


विख्यात: पृथुरिति तापसोपदिष्टै: सूताद्यै: परिणुतभाविभूरिवीर्य: ।
वेनार्त्या कबलितसम्पदं धरित्री- माक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षी: ॥५॥

इस अवतार में आप पृथु नाम से विख्यात हुए। तपस्वियों के उपदेश से सूत आदि ने आपके भावी पराक्रम की स्तुति और प्रशंसा की। वेन के सताये जाने पर पृथ्वी ने अपनी सम्पदाएं आत्मसात कर ली थी। अप धनुष से आक्रमण कर के आपने उन्हे समान तल पर खींच कर ले आए।


भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्त्यै- र्देवाद्यै: समुचितचारुभाजनेषु ।
अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥६॥

तब फिर से आपने देवादि के द्वारा अपने अपने कुल के प्रधान पुरुषों के साथ अत्यन्त सुन्दर पात्रों में अन्न औषधि आदि जो कुछ भी अभिलषित था, उन वस्तुओं का सुरभि रूपी पृथ्वी से दोहन करवाया।


आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम- न्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
स्पर्धालु: शतमख एत्य नीचवेषो हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥७॥

हे त्रिधामन! यज्ञों के द्वारा आप स्वयं का स्वयं ही यजन कर रहे थे। सौवें अश्वमेध यज्ञ के प्रारम्भ होने के समय ईर्ष्यालू इन्द्र ने कपट वेष में यज्ञ अश्व चुराने का प्रयत्न किया, तब वह आपके पुत्र के द्वारा हरा दिया गया।


देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।
रुन्धाने कमलभवे क्रतो: समाप्तौ साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथा: स्वयं स्वम् ॥८॥

इन्द्र के इस प्रकार बार बार घोडे को चुरा लेने से खिन्न मुनिमण्डल उसे ही अग्नि में होम देना चाहते थे, किन्तु ब्रह्मा जी ने उन्हें रोक दिया। यज्ञ के समाप्त होने पर आपने (पृथु ने) स्वयं ही स्वयं को साक्षात मधुसूदन रूप में देखा।

तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां गङ्गान्ते विहितपद: कदापि देव ।
सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस- न्नैक्षिष्ठा: सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥९॥

मधुसूदन से आपने (पृथु ने) एकनिष्ठ भक्ति का वरदान पाया। हे देव! एक बार गङ्गा के तट पर चुने हुए स्थान पर यज्ञ मे उपस्थित मुनिवृन्द को आप धर्म का उपदेश दे रहे थे। उसी समय आपने अपने समक्ष सनकादि मुनियों को देखा।


विज्ञानं सनकमुखोदितं दधान: स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।
तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥१०॥

फिर आप वन में रहने लगे। सनकादि मुनियों के द्वारा दिये गये ब्रह्म ज्ञान के उपदेश को भली भांति धारण करते हुए आपने स्वयं अपनी आत्मा को स्वयं के भीतर प्राप्त किया। ऐसे पृथुवपुधारी ईश! हे वातगेहवासिन! शीघ्र ही मेरे रोग समूहों को नष्ट कीजिये।  


ॐ नमो नारायणाय नम: ..

 


Tuesday, October 2, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १७







                       श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १७ 

 

उत्तानपादनृपतेर्मनुनन्दनस्य जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।
अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सात्वामेव नित्यमगति: शरणं गताऽभूत् ॥१॥

मनु पुत्र उत्तानपाद की पत्नी सुरुचि उनकी अत्यन्त प्रिया थी। दूसरी पत्नी सुनीति पति से अवहेलित और शरणहीन थी। वह नित्य प्रति आपकी ही शरण में जाती थी, आप जो अशरणों के शरण हैं।


अङ्के पितु: सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं दृष्ट्वा ध्रुव: किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।
आचिक्षिपे किल शिशु: सुतरां सुरुच्या दुस्सन्त्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥२॥

पिता की गोद में सुरुचि के पुत्र उत्तम को देख कर सुनीति के पुत्र ध्रुव ने भी पिता की गोद में चढने का उपक्रम किया। फलस्वरूप उस बालक को सुरुचि ने अत्यधिक कठोरता से डांटा। निश्चय ही, आप से विमुख लोग ईर्ष्या और द्वेष को आसानी से नहीं छोड पाते।


त्वन्मोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये दूरं दुरुक्तिनिहत: स गतो निजाम्बाम् ।
साऽपि स्वकर्मगतिसन्तरणाय पुंसां त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥३॥

आपकी माया से मोहित होने पर पत्नी के वशीभूत हुए पिता के चुपचाप देखते रह जाने पर कटुवचनों से आहत ध्रुव वहां से हट गया और अपनी माता के पास गया। माता ने भी उस बालक को यही बतलाया कि मनुष्य मात्र को अपने कर्मों की गति को पार करने के लिये, एकमात्र आप ही की शरण में जाना होता है।


आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चननिश्चितात्मा मानी निरेत्य नगरात् किल पञ्चवर्ष: । सन्दृष्टनारदनिवेदितमन्त्रमार्ग- स्त्वामारराध तपसा मधुकाननान्ते ॥४॥

यह सुन कर वह पांच वर्षीय स्वाभिमानी बालक आपकी आराधना का मन में दृढ निश्चय कर के नगर से निकल गया। मार्ग में उसकी नारद जी से भेंट हुई और उनसे मन्त्र मार्ग की दीक्षा मिली। फिर वह मधुवन में जा कर आपकी आराधना और तपस्या करने लगा।
 

ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन श्रीनारदेन परिसान्त्वितचित्तवृत्तौ ।
बालस्त्वदर्पितमना: क्रमवर्धितेन निन्ये कठोरतपसा किल पञ्चमासान् ॥५॥

ध्रुव के पिता उत्तानपाद का हृदय अत्यन्त दुखित हो गया। उसी समय नारद जी उनके नगर को गये और उनको सान्त्वना देते हुए शान्त किया। ध्रुव भी एकाग्र चित्त से आपकी आराधना करते रहा और क्रमश: उसकी तपस्या बढती गई। इस प्रकार उसने पांच महीने बिताए।


तावत्तपोबलनिरुच्छ्-वसिते दिगन्ते देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्द्रचेता: ।
त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमते: पुरस्ता- दाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढ: ॥६॥

ध्रुव के तप के बल से सभी दिशांओं में श्वासावरोध हो गया। तब देवताओं ने आपसे प्रार्थना की। ध्रुव के तप और देवों की प्रार्थना से करुणा के उदित होने से आपका मन पिघल गया। आपके स्वरूपभूत चिदानन्द रस में निमग्न उस बालक ध्रुव के समक्ष फिर आप गरुड के ऊपर आरूढ हो कर प्रकट हुए।


त्वद्दर्शनप्रमदभारतरङ्गितं तं दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।
तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥७॥

आपके दर्शन जनित हर्ष के अतिरेक से ध्रुव का तरङ्गित मन आपके स्वरूप के अमृत में डूब गया। वह स्तुति करने का इच्छुक है यह समझ कर आपने उसके गाल पर प्यार से अपना शंख छुआ दिया।


तावद्विबोधविमलं प्रणुवन्तमेन- माभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।
राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूय: सर्वोत्तरं ध्रुव पदं विनिवृत्तिहीनम् ॥८॥

तब तक तत्त्व बोध से विमल हुआ ध्रुव आपकी स्तुति करने लगा। उसके मनोभाव को जानते हुए आपने कहा - 'चिरकाल तक राज्य का उपभोग कर लेने के पश्चात तुम सब से ऊपर स्थित ध्रुव पद को प्राप्त करो, जो पुनरावृत्ति रहित लोक है।'


इत्यूचिषि त्वयि गते नृपनन्दनोऽसा- वानन्दिताखिलजनो नगरीमुपेत: ।
रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकाम- स्ताते गते च वनमादृतराज्यभार: ॥९॥

सभी लोगों को आनन्दित करता हुआ यह राजकुमार ध्रुव नगर को लौट गया। उसके पिता उसके ऊपर राज्य भार सौंप कर वन को चले गये। आपकी कृपा से पूर्ण काम हुए ध्रुव ने चिरकाल तक राज्य का उपभोग किया।


यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन् यक्षै: स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।
शान्त्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेता- त्त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥१०॥

 यक्ष के द्वारा उत्तम के मारे जाने पर ध्रुव उस यक्ष के साथ युद्ध करने लगे किन्तु फिर मनु के कहने पर युद्ध को रोक भी दिया। ध्रुव के शान्त स्वभाव से प्रसन्न हो कर कुबेर उसके पास पहुंचे। महात्मा ध्रुव ने कुबेर से भी आपमें दृढ भक्ति का ही वरदान मांगा।


अन्ते भवत्पुरुषनीतविमानयातो मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।
एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं वातालयाधिप निरुन्धि ममामयौघान् ॥११॥

आपके पार्षदों के द्वारा लाये गये विमान पर ध्रुव अपनी माता के संग चले गये। वे ध्रुव पद पर प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हैं। इस प्रकार अपने सेवको के पालन में उद्यत हे वातालयाधिप! मेरे कष्ट समूहों का नाश करें।


ॐ नमो नारायणाय नम: ..

 


Monday, October 1, 2012

श्रीमन् नारायणीम् - दशक - १६





                     श्रीमन् नारायणीम् *(श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि कृत) *- दशक - १६  


दक्षो विरिञ्चतनयोऽथ मनोस्तनूजां लब्ध्वा प्रसूतिमिह षोडश चाप कन्या: ।
धर्मे त्रयोदश ददौ पितृषु स्वधां च स्वाहां हविर्भुजि सतीं गिरिशे त्वदंशे ॥१॥

तब, ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने मनु की पुत्री प्रसुति को पत्नी के रूप में पा कर, उससे सोलह कन्याएं प्राप्त कीं। उनमें से तेरह कन्याओं को धर्म को दे दिया, पितरों को स्वधा को दे दिया, स्वाहा को अग्नि को और सती को आपके ही अंश शंकर को दे दिया।

 
मूर्तिर्हि धर्मगृहिणी सुषुवे भवन्तं नारायणं नरसखं महितानुभावम् ।
यज्जन्मनि प्रमुदिता: कृततूर्यघोषा: पुष्पोत्करान् प्रववृषुर्नुनुवु: सुरौघा: ॥२॥

धर्म की पत्नी मूर्ति ने ही अत्यन्त महिमाशाली आप नारायण को नर के साथ जन्म दिया। आपके उस जन्म के समय देव गण हर्षोल्लास सहित दुन्दुभियों का घोष करने लगे, और फूलों के समूहों की वर्षा करते हुए आपका स्तवन करने लगे।


दैत्यं सहस्रकवचं कवचै: परीतं साहस्रवत्सरतपस्समराभिलव्यै: ।
पर्यायनिर्मिततपस्समरौ भवन्तौ शिष्टैककङ्कटममुं न्यहतां सलीलम् ॥३॥

सहस्र कवचमक दैत्य हजारों कवचों से सन्नद्ध था। वे कवच हजारों वर्षों की तपस्या और युद्ध से ही भेदे जा सकते थे। आप दोनों, नर और नारायण ने, बारी बारे से युद्ध और तपस्या कर के उनका भेदन किया। जब मात्र एक कवच बच गया तब आप दोनों ने उसे बिना श्रम के मार डाला।


अन्वाचरन्नुपदिशन्नपि मोक्षधर्मं त्वं भ्रातृमान् बदरिकाश्रममध्यवात्सी: ।
शक्रोऽथ ते शमतपोबलनिस्सहात्मा दिव्याङ्गनापरिवृतं प्रजिघाय मारम् ॥४॥

आप मोक्ष धर्म का अभ्यास करने के साथ साथ उसका उपदेश और प्रचार भी करते हुए अपने भाई नर के साथ बदरिकाश्रम में निवास करने लगे। आपके इन्द्रिय निग्रह और तपोबल को देख कर ईर्ष्यालु इन्द्र ने दिव्याङ्गनाओं से घिरे हुए कामदेव को आपके पास भेजा।


कामो वसन्तमलयानिलबन्धुशाली कान्ताकटाक्षविशिखैर्विकसद्विलासै: । विध्यन्मुहुर्मुहुरकम्पमुदीक्ष्य च त्वां भीरुस्त्वयाऽथ जगदे मृदुहासभाजा ॥५॥

कामदेव अपने बन्धुओं वसन्त और मलय वायु के साथ वहां गये। विलास को बढाने वाले कामिनियॊ के कटाक्षों से उसने आपको बार बार भेदना चाहा। किन्तु आपको अविचलित देख कर वह डर गया। उस डरपोक को आपने मन्द मुस्कान से कहा-


भीत्याऽलमङ्गज वसन्त सुराङ्गना वो मन्मानसं त्विह जुषध्वमिति ब्रुवाण: ।
त्वं विस्मयेन परित: स्तुवतामथैषां प्रादर्शय: स्वपरिचारककातराक्षी: ॥६॥

कामदेव, वसन्त और देवाङ्गनाओं! तुम लोग डरो मत। मेरे पास यहां आकर मेरे मानस का अनुशीलन करो।' आपके इस प्रकार कहने पर वे अत्यन्त विस्मित हो कर आपके निकट जा कर आपकी स्तुति करने लगे। स्तुति करते हुए उनको आपने अपनी सुन्दर नेत्रों वाली परिचारिकाओं को दिखलाया।


सम्मोहनाय मिलिता मदनादयस्ते त्वद्दासिकापरिमलै: किल मोहमापु: ।
दत्तां त्वया च जगृहुस्त्रपयैव सर्व- स्वर्वासिगर्वशमनीं पुनरुर्वशीं ताम् ॥७॥

कामदेव अदि जो मिलकर आपको सम्मोहित करने के लिये आये थे, आपकी परिचारिकाओं की गन्ध से स्वयं ही मुग्ध हो गये। जब आपने स्वर्गवासी सुराङ्गनाओं के गर्व का शमन करने वाली उर्वशी उन्हे प्रदान की तब उन्होंने उसे अत्यन्त लज्जा सहित ग्रहण किया।


दृष्ट्वोर्वशीं तव कथां च निशम्य शक्र: पर्याकुलोऽजनि भवन्महिमावमर्शात् ।
एवं प्रशान्तरमणीयतरावतारा- त्त्वत्तोऽधिको वरद कृष्णतनुस्त्वमेव ॥८॥

उर्वशी को देख कर और आपकी वार्ताएं सुन कर, आपकी महिमा से अज्ञात होने के कारण इन्द्र व्याकुल हो गया। हे वरद! आपके इस अत्यन्त शान्त और रमणीय नर नारायण के अवतार से आपका कृष्ण स्वरूप अवतार ही अधिक महान है।


दक्षस्तु धातुरतिलालनया रजोऽन्धो नात्यादृतस्त्वयि च कष्टमशान्तिरासीत् ।
येन व्यरुन्ध स भवत्तनुमेव शर्वं यज्ञे च वैरपिशुने स्वसुतां व्यमानीत् ॥९॥

ब्रह्मा के अत्यधिक स्नेह से लालित दक्ष रजोगुण जनित राग से अंधे हो गये। वे आपका भी आदर नहीं करते थे। इसी कारण वे अशान्त रहते थे। खेद है कि उन्होंने आपके ही अंश स्वरूप शंकर से यज्ञ में वैर सूचक व्यवहार किया और अपनी ही कन्या का निरादर किया।


क्रुद्धेशमर्दितमख: स तु कृत्तशीर्षो देवप्रसादितहरादथ लब्धजीव: ।
त्वत्पूरितक्रतुवर: पुनराप शान्तिं स त्वं प्रशान्तिकर पाहि मरुत्पुरेश ॥१०॥

शंकर ने क्रोधित हो कर वह यज्ञ नष्ट भ्रष्ट कर दिया और दक्ष का सिर काट दिया। देवों के द्वारा शान्त और प्रसन्न किये जाने पर फिर शंकर ने दक्ष को जीवन दान दिया। आपने फिर उस महान यज्ञ को पूर्ण करवाया। तब कहीं दक्ष को शान्ति मिली। हे प्रशान्तिकर मरुत्पुरेश! वह आप मेरी रक्षा करें।



 ॐ नमो नारायणाय नम: ..